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प्रमाणमीमांसा में प्रमाणलक्षण
प्रमाणमीमांसा में हेमचन्द्र ने प्रमाण का लक्षण 'सम्यगर्थनिर्णयः' कह कर दिया है। यदि हम हेमचन्द्र द्वारा निरूपित इस प्रमाणलक्षण पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि यह प्रमाणलक्षण पूर्व में दिये गए प्रमाणलक्षणों से शाब्दिक दृष्टि से तो नितान्त भिन्न ही है। वस्तुतः शाब्दिक दृष्टि से इसमें न तो 'स्व-पर-प्रकाशत्व' की चर्चा है, न बाधविवर्जित या अविसंवादित्व की, जबकि पूर्व के सभी जैन-आचार्यों ने अपने प्रमाण-लक्षण-निरुपण में इन दोनों की चर्चा अवश्य की है। इसमें 'अपूर्वता' को भी प्रमाण के लक्षण के रूप में निरूपित नहीं किया गया है, जिसकी चर्चा कुछ दिगम्बर जैनाचार्यों ने की है। न्यायावतार में प्रमाण के जो लक्षण निरूपित किये गये हैं, उनमें स्व-पर प्रकाशत्व और बाधविवर्जित होना- ये दोनों उसके आवश्यक लक्षण बनाए गये हैं। न्यायावतार की इस परिभाषा में भी बाधविवर्जित अविसंवादित्व का ही पर्याय है। जैन परम्परा में यह लक्षण बौद्ध-परम्परा के प्रभाव से गृहीत हुआ है। जिसे अष्टशती आदि ग्रन्थों में स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार मीमांसकों के प्रभाव से अनधिगतार्थक होना या अपूर्व होना भी जैन प्रमाण लक्षण में सन्निविष्ट हो गया। अकलंक और माणिक्यनन्दी ने इसे भी प्रमाण-लक्षण के रूप में स्वीकार किया है। --..
इस प्रकार जैन-परम्परा में हेमचन्द्र के पूर्व प्रमाण के चार लक्षण निर्धारित हो चुके थे - 1. स्व-प्रकाशक - 'स्व' की ज्ञानपर्याय की बोध कराने वाला। 2. पर-प्रकाशक - पदार्थ का बोध कराने वाला। 3. बाधविवर्जित या अविसंवादि। 4. अनधिगतार्थक या अपूर्व (सर्वथा नवीन)
इन चार लक्षणों में से 'अपूर्व' लक्षण का प्रतिपादन माणिक्यनन्दी के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में भी नहीं देखा जाता है। विद्यानन्द ने अकलंक और माणिक्यनन्दी की परम्परा से अलग होकर सिद्धसेन और समन्तभद्र के तीन ही लक्षण ग्रहण किये। श्वेताम्बर परम्परा में किसी आचार्य ने प्रमाण का 'अपूर्व' लक्षण प्रतिपादित किया हो, ऐसा हमारे ध्यान में नहीं आता है। यद्यपि विद्यानन्द ने माणिक्यनन्दी के 'अपूर्व' लक्षण को महत्वपूर्ण नहीं माना, किन्तु उन्होंने 'व्यवसायात्मकता' को आवश्यक समझा। परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यो ने भी विद्यानन्द का ही अनुसरण किया है। अभयदेव, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र सभी ने प्रमाण-लक्षण-निर्धारण में 'अपूर्व' पद को आवश्यक नहीं माना है।
जैन परम्परा में हेमचन्द्र तक प्रमाण की जो परिभाषाएँ दी गई है, उन्हें पं. सुखलालजी ने चार वर्गों में विभाजित किया है - 142
जैन दर्शन में तत्व और ज्ञान