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________________ हैं कि न केवल जैन-परंपरा में, अपितु बौद्ध व ब्राह्मण परम्परा में भी ये मान्यताएं समान रूप से प्रचलित रही हैं। एक तथ्य और हमें समझ लेना होगा, वह यह कि तीर्थकर या आप्त पुरुष केवल हमारे बंधन व मुक्ति के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हैं। वे मनुष्य की नैतिक कमियों को इंगित करके वह मार्ग बताते हैं, जिससे नैतिक कमजोरियों पर या वासनामय जीवन पर विजय पायी जा सके। उनके उपदेशों का मुख्य संबंध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास, सदाचार तथा सामाजिक-जीवन में शान्ति व सह अस्तित्त्व के मूल्यों पर बल देने के लिए होता है। अतः सर्वज्ञ के नाम पर कही जाने वाली सभी मान्यताएं सर्वज्ञप्रणीत हैं- ऐसा नहीं है। कालक्रम में ऐसी अनेक मान्यताएँ आयीं, जिन्हें बाद में सर्वज्ञप्रणीत कहा गया। जैन-धर्म में खगोल व भूगोल की मान्यताएं भी किसी अंश में इसी प्रकार की हैं। पुनः विज्ञान कभी अपनी अंतिमता का दावा नहीं करता है, अतः कल तक जो अवैज्ञानिक कहा जाता था, वह नवीन वैज्ञानिक-खोजों से सत्य सिद्ध हो सकता है। आज न तो विज्ञान से भयभीत होने की आवश्यकता है और न उसे नकारने की। आवश्यकता है विज्ञान और अध्यात्म के रिश्ते के सही मूल्याकंन की। 00 112 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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