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________________ धातकी खण्ड है। उसको वलयाकार में घेरे हुए कालोदधि नामक समुद्र है। उसको पुनः वलयाकार में घेरे हुए पुष्कर-द्वीप है। उसके आगे पुनः वलयाकार में पुष्कर-समुद्र है। इसके पश्चात् अनुक्रम से एक के बाद एक वलयाकार में एक-दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। ज्ञातव्य है कि हिन्दू-परम्परा में मात्र सात द्वीपों एवं समुद्रों की कल्पना है, जिसकी जैनआगमों में आलोचना की गई है, किन्तु जहाँ तक मानव जाति का प्रश्न है, वह केवल जम्बूद्वीप, धातकी-खण्ड और पुष्करावर्त द्वीप के अर्धभाग में ही उपलब्ध होती है। उसके आगे मानव-जाति का अभाव है। इस मध्यलोक या भूलोक से ऊपर आकाश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तारों के आवास या विमान हैं। यह क्षेत्र ज्योतिषिक देव क्षेत्र कहा जाता है। ये सभी सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तारे आदि मेरुपर्वत को केन्द्र बनाकर प्रदक्षिणा करते हैं। इस क्षेत्र के ऊपर श्वेताम्बर मान्यतानुसार क्रमशः बारह अथवा दिगम्बर मतानुसार सोलह स्वर्ग या देवलोक हैं। उनके ऊपर क्रमशः नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर-विमान हैं। लोक के ऊपरी अन्तिम भाग को सिद्ध क्षेत्र या लोकाग्र कहते हैं यहाँ सिद्धों या मुक्त आत्माओं का निवास है। यद्यपि सभी धर्म-परम्पराओं में भूलोक के नीचे नरक या पाताल-लोक और ऊपर स्वर्ग की कल्पना समान रूप से पायी जाती है, किन्तु उनकी संख्या आदि के प्रश्न पर विभिन्न परम्पराओं में मतभेद देखा जाता है। खगोल एवं भूगोल का जैनों का यह विवरण आधुनिक विज्ञान से कितना संगत, अथवा असंगत है? यह निष्कर्ष पाना सहज नहीं है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री यशोदेवसूरिजी ने संग्रहणीरत्न-प्रकरण की भूमिका में विचार किया है, अतः इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर पाठकों को उसे आचार्य श्री की गुजराती भूमिका एवं हिन्दी व्याख्या में देख लेने की अनुशंसा करते हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी जैन-अवधारणा का अन्य धर्मों की अवधारणाओं से एवं आधुनिक विज्ञान की अवधारणा से क्या सम्बन्ध है- यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में हमें दो प्रकार के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। जहाँ विभिन्न धर्मों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि को देव के रूप में चित्रित किया गया है, वहीं आधुनिक विज्ञान में वे अनन्ताकाश में बिखरे हुए भौतिक पिण्ड ही हैं। धर्म उनमें देवत्व का आरोपण करता है, किन्तु विज्ञान उन्हें मात्र एक भौतिक संरचना मानता है। जैन-दृष्टि में इन दोनों अवधारणाओं का एक समन्वय देखा जाता है। जैन विचारक यह मानते हैं कि जिन्हें हम सूर्य, चन्द्र, आदि मानते हैं, वह उनके विमानों से निकलने वाला प्रकाश है। ये विमान सूर्य, चन्द्र आदि देवों के आवासीय-स्थल हैं, जिनमें उस नाम वाले देवगण निवास करते हैं। जैन तत्त्वदर्शन 109
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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