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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 30. (सम्यग्दृष्टि) यद्यपि शरीर से आत्मा को भिन्न मानता है अत: शरीर में से बहनेवाले
पसीने को आत्मा की क्रिया न मानकर उसे शरीर की क्रिया मानता है, परन्तु खानापीना, स्त्री-सम्भोग करना और वस्त्र धारणकरने जैसी क्रियाओं को निरे शरीर की ही क्रिया नहीं मानता बल्कि वहाँ पर शरीर और आत्मा को एक जानकर उन्हें तो अपने ही द्वारा की हुई मानता है । इस प्रकार निश्चय नय सहित व्यवहार नय का अनुयायी होता हैं।
(पृ. 56) 31. स्वरूपाचरण तो उस आत्मानुभव का नाम है जो कि संज्वलन कषाय के भी न होने पर होता है । (श्रेणी - गत साधु के)
(पृ. 145) 32. वीतराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय परिणाम का नाम ही स्वरूपाचरण चारित्र है।
(पृ. 247) समयसार में से उद्धृत वचनामृत 33. असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा निस्सार नहीं लेना चाहिए किन्तु 'अ' का अर्थ ईषत् (अल्प) लेकर व्यवहार नय अभूतार्थ अर्थात् तात्कालिक प्रयोजनवान है ऐसा लेना चाहिए।
(समयसार, पृ. 14-15) 34. जीव को विकारी बनाने में कर्म उदासीन निमित्त है किन्तु जीव का विकारी भाव
पुद्गल को कर्मरूप करने में असाधारण निमित्त है। (समयसार, पृ. 96) 35. कर्त्तापन मुख्यता से तीन प्रकार का है - 1. शरीरात्मक, 2. अविरतात्मक, 3. विरतात्मक
__ (समयसार, पृ. 104, विशेषार्थ देखें) 36. विशेषार्थ – निश्चयनय अभिन्न तादात्म्य संबंध या उपादान-उपेय भाव को ही ग्रहण
करता है । उसकी दृष्टि संयोग सम्बन्ध पर नहीं होती जबकि व्यवहार नय संयोग सम्बन्ध और निमित्त-नैमित्तिक भावों को बतलानेवाला है । इसलिए आचार्य महाराज (जयसेन स्वामी) कहते हैं कि आत्मा निश्चय नय से तो अपने भावों का ही कर्ताभोक्ता है किन्तु व्यवहार नय से वह द्रव्य-कर्मों का करनेवाला और भोगने वाला भी है । यह व्यवहार नय समाधि अवस्था से च्युत अज्ञान दशा में स्वीकार किया जाता है किन्तु समाधि दशा में निश्चय नय का अवलम्बन रहता है।
(समयसार 81) समयसार के अन्य स्थल पहले विवेकोदय में से उद्धृत किये ही गये हैं । उपरोक्त प्रकार आचार्य ज्ञानसागरजी के नय-निरूपण के कुछ संकेत बिन्दु हमने प्रस्तुत किये हैं । इनसे पाठक की एक ही दृष्टि में आचार्यश्री के अनेकान्त निरूपण रस का आस्वादन हो सके।