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________________ 86 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 2. अजीव - जिनमें चेतना नहीं होती ऐसे पाँच द्रव्य हैं 1. धर्म, 2. अधर्म, 3. आकाश, 4. काल, 5. पुद्गल । इनमें पुद्गल स्पादिमान होने से मूर्तिक है बाकी चारों उनसे रहित अमूर्तिक हैं । गतिशील पुद्गल और जीव जब गमन करते हैं तो मछली को जल की तरह उनको उदासीनता रूप से सहकारी होना धर्मद्रव्य का कार्य है और जब व ठहरते हैं रेल को स्टेशन की भाँति उदासीन रूप से सहकारी होना अधर्म-द्रव्य का कार्य है । सब चीजों को जगह देना आकाश का और सब चीजों के परिवर्तन में सहकारी होना काल का कार्य है । आपस में एक-दूसरे से मिलना एवं बिछुड़ना तथा स्थूल सूक्ष्म होना किञ्च सरागी जीव के साथ में भी कर्मत्व भाव को प्राप्त होकर मेल करना इत्यादि यह सब पुद्गलों का कार्य है । उक्त पाँचों वस्तुएं आत्मा से भिन्न, आत्मा इनसे भिन्न तथा अनन्त आत्मायें भी एकदूसरे से भिन्न स्वतन्त्र द्रव्य है । पर संयोग सम्बन्ध से रहित एकाकी द्रव्य हों उनमें विकार नहीं होता । पराभिमुख जीव के पुण्य-पापरूप विकार भाव होता है । जीव के रागादिरूप विकार को लेकर जड़ कर्मरूप सूक्ष्म धूल क्षणिक संयोग संबंध के द्वारा उसके साथ के बन्ध को प्राप्त होती है । अपने स्निग्ध और रूक्ष गुण विशेष को लेकर पुद्गल परमाणुएँ आपस में भी मिलकर स्कन्ध रूप में परिणत होती हैं । 3. दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत इत्यादि के रूप में जीव के भाव होना भाव-पुण्य और उसके निमित्त से जड़ परमाणुओं का समूह जो सांसारिक सुख सम्पादन शक्ति को लिये हुए इस आत्मा के साथ सम्बन्धित होता है वह द्रव्य-पुण्य कहलाता है । 4. हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील वगैरह रूप आत्मा के संक्लेश परिणामों का नाम भाव-पाप और उसके निमित्त से जो पुद्गल परमाणुओं का समूह दुःखदायक शक्ति को लिए हुए आत्मा के साथ संयुक्त होता है वह द्रव्य-पाप है । 5. आत्मा में शुभाशुभरूप विकार भावों का होना वह भावास्रव है और उसके द्वारा जो नवीन ज्ञानावरणादिरूप कर्मपरमाणुओं का आना होता है सो द्रव्यास्रव कहलाता है । 6. संवर - आत्मा के निष्कषायरूप परिणामों का नाम भावसंवर और उससे नूतन कर्म आने में रोक लग जाने का नाम द्रव्य-संवर है। 7. निर्जरा - तत्त्वाभ्यास के बल से प्राप्त हुई आत्मीयदृढ़ता के द्वारा क्रमशः आत्मा की कलुषता के कम होने का नाम भाव-निर्जरा और उसके निमित्त से कर्म परमाणुओं का अंशतः खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा कहलाती है । 8. बन्ध - आत्मा का रागद्वेषादिरूप विकार भावमय हो रहने का यानी परतन्त्र हो रहने का नाम भावबन्धहै और कर्मरूप शक्ति को लिये हुए कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ में लगे रहने का नाम द्रव्यबन्ध है । 9. मोक्ष - आत्मा की अशुद्ध अवस्था का अभाव होकर पूर्ण शुद्ध अवस्था में आ जाना सो भाव-मोक्ष और उसके निमित्त-कारण द्रव्यकर्मों का पूर्ण नाश हो जाना सो द्रव्यमोक्ष है।"
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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