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________________ 84 ___ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण कहते हैं, "एक बच्चा किसी काष्ठ आदि खिलौने को देखकर उसे सुन्दर समझता हुआ अपने हाथ में पकड़े रहता है । यदि वह फूट जावे या बिगड़ जावे तो रोने लगता है । किसी भी प्रकार से उसका अभाव हो जाने पर दुःखी होता है । इसी प्रकार यह सच्चिदानन्द आत्मा भी इन मूर्तिक पर-पदार्थों को सदा से ही अपने भावों में अपनाये हुए हैं अत: अपने भावों के द्वारा यह उनके साथ बंधा हुआ है ।" विवेकोदय पृष्ठ 36 का यह स्थल पठनीय है, "संसार से मुक्त होने पर जीव में रसादिक का लेश नहीं रहता । हाँ, जबतक कि यह संसारपन्न है तबतक वर्णादियुक्त होकर मूर्तिक बन रहा है ताकि (इसी हेतु से) इसके साथ कर्मों का सम्बन्ध लगा हुआ है । अगर इस समय भी इसको वर्णादियुक्त न कहकर अमूर्तिक ही कहा जाय तो अमूर्तिक का मूर्तिक कर्मों से सम्बन्ध नहीं बन सकता । आसमान को रस्सी से बाँधा जा सकता है क्या ? कभी नहीं । (सर्वथा अमूर्तिक को बन्ध नहीं होता) बस, तो फिर आत्मा इस पौद्गलिक शरीर में जकड़ा हुआ है अमूर्तिक कैसे कहा जा सकता है मूर्तिक ही है । जैसा कि ववहारा मुत्ति बन्धादो (वण्ण रस पञ्च गंधा दो फासा अटु णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदा ववहारामुत्ति बंधादो ।) इस 'द्रव्य संग्रह' के वाक्य से स्पष्ट है एवं यही बात "तत्थभवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी" इस प्रकार समयसारजी की गाथा नं. 61 के पूर्वार्ध में श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी लिख गये हैं । परन्तु उन वर्णादि का जीव के साथ संयोग है, तादात्म्य नहीं । तादात्म्य तद्प सम्बन्ध तो उनका पुद्गल द्रव्य के साथ है जो कभी हटाया हट नहीं सकता । यही जीव और पुद्गल में परस्पर भेद है नहीं तो फिर एक ही बन जावे सो है नहीं ।" । ___ इस उपरोक्त कथन की पुष्टि में आ. अमृतचन्द का निम्न कलश प्रस्तुत है - एकस्य दृश्यो न तथा परस्य, चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्यास्तिनित्यं खलु चिच्चिदेव ॥87॥ - यहाँ स्पष्ट है कि आत्मा एकनय (व्यवहार नय) की अपेक्षा दृश्य (मूर्तिमान) है । आत्मा का सूक्ष्मत्व गुण नामकर्म के उदय से विकृत होकर विभाव परिणमन किए हुए है । जैसे मूर्तिक मदिरा के प्रयोग से प्रभाव से आत्मा मदमत्त हो जाता है । यदि सर्वथा अमूर्तिक होता तो आकाश के समान उस पर भी मदिरा का प्रभाव न पड़ता । आ. ज्ञानसागरजी महाराज का बन्ध प्रक्रिया विस्तार विषयक निरूपण और भी दृष्टव्य प्रवचनसार ज्ञेयाधिकार, गाथा नं. 83 से 88 का सारांश - "यही दशा संसारी जीव की है । यह भी बाह्य-विषयों में सम्बन्ध करके फँसा रहता है इसलिए कर्माधीन बना रहता है । मतलब यह है कि जीव के रागद्वेषादि भावों के निमित्त से) कारण से कर्मों का बन्ध हो रहा है (सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः) । यह बन्ध तीन तरह का होता है । 1. केवल पुद्गल का 2. केवल जीव का
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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