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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण था यह नापना भी अत्यन्त कठिन है । उनकी शैली सम्मुख खड़े व्यक्ति का पर्याप्त समाधान करने में सक्षम है । शंकाओं का निरसन करने के लिए वे सदैव रुचिवान दृष्टिगोचर होते हैं । कर्ता-कर्म विषयक भी उनका सोच गजब का है । यहाँ सम्यक्त्वसार शतक का उनका एक श्लोक बरबस आकर्षित कर रहा है, प्रस्तुत है -
"इदं करोति तु जीवनर्म, विकल्पबुद्धौ क्रियते च कर्म । द्वयोरवस्था नृकलत्रकल्पा, मिथः सदा धारकधार्य जल्पा ॥20॥
अन्वयार्थ - मैं यह करता हूँ, मैं वह करता हूँ इत्यादि निज विकल्प बुद्धि से जीव के द्वारा कर्म किये जाते हैं । जीव और कर्म की यह अवस्था पति-पत्नी के सम्बन्धों जैसी है । जो सदा कर्म और जीव के बीच क्रमशः संग्राह्य और संग्राहक जैसा नाता है ।
अर्थ - खाता हूँ, पीता हूँ, मारता हूँ, काटता हूँ, पीटता हूँ इत्यादि विकल्प में पड़कर इस आत्मा का जो राग-द्वेषरूप परिणाम होता है उसका करनेवाला यदि वस्तु-परक विचार कर देखा जाय तो यह आत्मा ही है (यह मान्यता कि आत्मा नहीं करता वह तो पर्याय करती है, पर्याय में होता है द्रव्य में नहीं भ्रामक है तथ्य पर आधारित नहीं है) दूसरा कोई भी नहीं है । यद्यपि बाह्य पदार्थ इसमें निमित्त जरूर बनता है फिर भी उस भाव को होने देने और न होने देने का उत्तरदायित्व इस जीवात्मा पर ही है । ..... मानना होगा कि अपने परिणामों को खोटे और चोखे करनेवाला यह आत्मा ही है । ..... यह आत्मा अपने भाव को भला या बुरा आप बनाता है अतः यही उसका कर्ता और जो जैसा भाव इससे बनता है, वह भाव उसका कर्म यानी कार्य है । यह आत्मा जैसा (कार्य) भाव करता है उसी के अनुसार कर्मवर्गणा कर्मरूप में आकर उसका साथ देती है अतः वे भी इसी की हुई यानी कर्म कहलाती हैं । क्योंकि भाव और भावी में अभेद होता है इसलिए जो जिसके भाव से हुआ वह उस भाववान से ही हुआ, ऐसा कहने में कोई दोष नहीं क्योंकि भाव से जो हुआ वह भाववान पर ही फलता है । इस प्रकार कर्म और जीव में परस्पर औरत और मर्द का सा नाता है । कर्म संग्राह्य है और जीव है सो संग्राहक होता है । किंच और अगर भलेरी हो तो उसे मर्द के विचारानुसार चलना पड़ता है । मर्द को भी उसका ध्यान अवश्य रखना पड़ता है । (उदाहरण - श्रीपाल-मैनासुन्दरी के वचन निर्वाह का) ...... वैसे ही जीव के परिणामानुसार कार्माणवर्गणाओं को परिणमन करना पड़ता है तो जीव को भी अपने किये हुए कर्म के वश होकर चलना पड़ता है ।
पं. टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में वर्णन किया है कि जीव और कर्म की एकदंडी बेड़ी के समान स्थिति है । संसार अवस्था है दोनों को साथ चलना पड़ता है । यदि जीव बलवान है तो कर्म को खींचकर अपने अनुकूल चलाता है और यदि कर्म बलवान है तो जीव को अपने अधीन पर प्रवर्तन कराता है । यह समस्त वर्णन व्यवहार नय का है । आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने उपर्युक्त विवेचन से पौद्गलिक भी कर्म को जीव का कर्म सिद्ध किया है वह अपने में सटीक और युक्तिपूर्ण है । यदि व्यवहारिक वर्णन को वस्तु ही न माना जाय तो संसार और मोक्ष दोनों का अभाव ही होगा । वस्तुतः यदि जीव कर्ता और पुद्गल कार्माण-वर्गणाओं का कर्मरूप परिणमन जीव का कर्म, व्यवहार नय का विषय होने