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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण कर्म नाम परिणाम और परिणाम तथा परिणामी. में । भेद कौन यों जीव नहीं कर्ता कर्म का सुवासी में 15॥
यहाँ आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि विकार या परिणाम कर्म है और परिणमन करनेवाला कर्ता है, निश्चय नय से वे एक हैं । आ. अमृतचन्द्रजी ने भी कहा है -
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामों भवेन्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया सम. कलश 51॥
सारांश यह है कि कर्ता, कर्म और क्रिया निश्चय नय की दृष्टि में अभिन्न है । उक्त सम्पूर्ण विषय का सारांश आ. महाराज ने निम्न प्रकार प्रकट किया है ।
प्रवचनसार पृष्ठ 75 "जब यह आत्मा रागद्वेषादि सहित होता है तब कर्मरूप में होने योग्य पुद्गल वर्गणाओं का संग्रह करता है । यही संसार का मूल कारण है । इस पर यह पूछा जा सकता है कि आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न होने का भी कोई-न-कोई कारण विशेष होना चाहिए क्योंकि राग-द्वेष आत्मा के.सहज भाव नहीं माने जा सकते हैं । इसका उत्तर यह है कि उन संगृहित कर्मवर्गणाओं के साथ में तन्मयता का होना ही राग-द्वेष को पैदा करनेवाला है । यह तो एक-दूसरे के भरोसे पर होने से निस्सार प्रतीत होता है ।"
"यहाँ प्रसंग पाकर आचार्य श्री (कुन्दकुन्द) ने कर्म क्या है और उनका कर्ता कौन है ? इस पर प्रकाश डाला है । व्याकरण शास्त्र में क्रिया के करनेवाले को कर्ता और उसके द्वारा किया जावे उसे कर्म कहा गया है । कर्म का ही दूसरा नाम कार्य भी है । यह हम लोगों के नित्य के अभ्यास में अभिन्न रूप से और भिन्न रूप से (सिद्धान्त में निश्चय नय से और व्यवहार नय से) दो तरह से देखने में आता है । जैसे कहा गया कि रामलाल ने लालच दिया अतः वह झूठन भी चाट गया । यहाँ कहनेवाला एक रामलाल है और उसके कार्य दो हैं । एक लोभ करना और दूसरा झूठन चाट जाना । लालच तो रामलाल का परिणाम (भाव) है । यह उससे अभिन्न है, पृथक् नहीं है और झूठन उससे भिन्न वस्तु है जिसे वह चाट गया । ऐसे ही आत्मा जब रागद्वेषादि सहित होता है तब वह कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करता है । रागद्वेषादि करना निश्चय नय (अशुद्ध) से आत्मा का कार्य है, कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करना व्यवहार नय से आत्मा का कार्य है।
यहाँ भी राग-द्वेष आत्मा का विकारीभाव है जो आत्मा के द्वारा किया जाता है । अतः यह भाव आत्मा का कर्म है यह आत्मा से अभिन्न होता है । इन्हीं रागद्वेषादि भावों के कारण से आत्मा कार्माण पुद्गल समूह, जो आत्मा से भिन्न द्रव्य है उसको ग्रहण करता है । यह द्रव्य उसका कर्म कहलाता है । ऐसे भावकर्म और द्रव्यकर्म के नाम से दो भेद हो जाते हैं । यहाँ ऐसा भी कहा गया है कि (निश्चय नय से) आत्मा तो अपने भावकर्म का ही कर्ता है न कि द्रव्यकर्म का क्योंकि एक द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य के द्वारा कभी ग्रहण नहीं किया जा सकता है ।