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________________ 70 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण गाथा नं. 978 का विशेषार्थ - (व्यवहार नय से) 'यथावस्थितं अर्थ जानातीति ज्ञानं' अर्थात् पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है उसको उसी रूप में जानना, यथार्थ तत्त्वज्ञान ज्ञान है । (निश्चय नय से) "आत्मानं जानाति अनुभवतीति ज्ञानं" अर्थात् अपनी आत्मा को जानना अनुभव करना ज्ञान है । समयसार में जो वर्णन है वह गृहस्थ (व्यवहार) सम्यग्दृष्टि को लेकर नहीं किन्तु (श्रमणों में) वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेकर किया है यह बात समयसार में सर्वत्र ध्यान रखने योग्य है । प. पू. आ. विद्यासागरजी महाराज की निम्न पद्यानुवाद पंक्तियों का अवलोकन करें - ज्ञानी कभी न भजते व्यवहार व्याधि, हो निर्विकल्प, तजते न सुधी समाधि । होते विलीन परमार्थ पदार्थ में हैं, काटे कुकर्म बस साधु यथार्थ में है ॥163॥ स्पष्ट है कि साधु यथार्थ ज्ञानी है । आ. ज्ञानसागरजी ने समयसार के सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार की गाथा नं. 431 के विशेषार्थ में निश्चय-व्यवहार का जो निरूपण किया है उससे आहारक-अनाहारक, मूर्त-अमूर्त आदि विषयों का सम्यक् स्पष्टीकरण होता है । ज्ञातव्य है, "आत्मा निश्चय नय की दृष्टि में तो सदा शरीर रहित है । अब जो मुनि निश्चय नय पर आरूढ़ होते हैं अर्थात् आत्म-समाधि में लगकर अपने शुद्धात्मा का अनुभव करने लगते हैं तो वहाँ आत्मा अमूर्त है, शरीर रहित है और जब शरीर ही नहीं है तो फिर किसी भी प्रकार के आहार ग्रहण की आवश्यकता ही क्या है । इसलिए आहार ग्रहण करना तो दूर रहा वहाँ इसकी बात भी नहीं है जिसका यहाँ वर्णन किया गया है । हाँ, जब वे व्यवहार दृष्टि में आते हैं तब उन्हें शरीर के संयोग को लक्ष्य में लेकर आहार ग्रहण करने की आवश्यकता होती है तो वहाँ आचार शास्त्र विधानानुसार समुचित आहार ग्रहण करते हैं जिसका कथन हाँ पर गौण है हाँ, इस निश्चय और व्यवहार को ठीक नहीं समझने वाले कुच भाई ऐसा कह दिया कहते हैं कि आङार करते हुए भी आत्मा आहार नहीं करता क्योंकि आत्मा अमूर्त्तिक है । आहार तो शरीर ग्रहण करता है । सो शरीर तो जड़ है उसकी ओर से तो चाहे कैसा भी हो कोई बात नहीं है । ऐसा कहनेवालों को यह सोचना चाहिए कि निश्चय नय में शरीर वस्तु ही क्या है जो कि आहार को ग्रहण करता है । शरीर तो पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड है जो कि संयोगात्मक होने से व्यवहार नय का विषय है । अतः निश्चय नय में तो आहार ग्रहण करने की बात ही नहीं बनती है । जब आत्मा व्यवहार नय पर आता है अर्थात् समाधि से च्युत होता है तो शरीर के साथ संयोग होने से शरीर की स्थिति रखने के लिए शरीर के द्वारा समुचित आहार ग्रहण करता है ऐसा यहाँ तात्पर्य है । किंच कर्माहार की अपेक्षा से देखें तो स्पष्ट शुद्धात्मा सिद्ध भगवान् ही अनाहारक हैं और सभी संसारी आत्मा
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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