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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण - 59 तो साधक कारण की उपस्थिति में तथा बाधक कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति सदा होनी चाहिए यानि सदा सब मिट्टी घटरूप परिणत हो जाना चाहिए क्योंकि उपदान कारण तो (मिट्टी रूप उपादान कारण) विद्यमान है फिर कार्य के सदा होने में क्या बाधा है ? पर कार्य सदा होते हुए तथा सब मिट्टी घटरूप परिणत होती हुई नजर नहीं आती । अतः ऐसे किसी कारणान्तर को विचारणा बुद्धिधारियों को करनी चाहिए जो कार्य हेतु (नियामक) नियमतः साधक हो । बस, ऐसे ही बाह्य कारण जो वस्तु के कार्यरूप परिणमन में अपरिहार्य हेतुता धारण करें । (जैसे दिन विकासी कमल के लिए सूर्य तथा रात्रि विकासी कमल के लिए चाँदनी अथवा घट के लिए उचित क्रिया से परिणत कुम्हार, चक्र, चीवर, उदक आदि) उन्हें निमित्त कहते हैं। कार्य-कारण का स्पष्टीकरण - जो किया जावे वह कार्य कहलाता है । जिस किसी के द्वारा वह किया जा सके उसे कारण कहा जाता है । कारण सम्पादक है और कार्य सम्पादनीय । अब उस कार्य के होने में वह कारण दो प्रकार का होता है एक उपादान, दूसरा निमित्त जो स्वयं कार्यरूप में परिणत होता है उसे उपादान-कारण कहते हैं । जैसे कि घट के लिए मिट्टी या उस मिट्टी की घट से पूर्ववर्ती पयाय । किन्तु जो खुद कार्यरूप न होकर कार्य के होने में सहकारी हो उसे निमित्त-कारण कहते हैं, जैसे घट के लिए कुम्भकार, चाक, दण्ड वगैरह । वह निमित्त-कारण दो तरह का होता है - एक प्रेरक और दूसरा उदासीन । प्रेरक कारण भी दो तरह का होता है, एक तो गतिशील सचेष्ट और इच्छावान, जैसे घट के लिए कुम्भकार, इसी को व्यावहारिक (व्यवहार नय से) कर्ता भी कहते हैं। दूसरा सचेष्ट किन्तु निरीह प्रेरक निमित्त होता है जैसे कि घड़े के लिए चाक । उदासीन निमित्त वह कहलाता है जो निरीह भी होता है और निश्चेष्ट भी जैसे कि घट के लिए चाक के नीचे रहनेवाला शंकु, जिसके सहारे पर चाक घूमता है । समर्थ कारण उपादान और निमित्तों की समष्टि (समूह) का नाम है जिसके कि होने पर उत्तरक्षण में कार्य सम्पन्न हो ही जाता है । उन्हीं के भिन्न-भिन्न रूप में यत्र-तत्र रहने को असमर्थ कारण कहा जाता है, अर्थात् वे सब कारण होकर भी उस दशा में कार्य करने को समर्थ नहीं होते हैं । प्रत्येक कार्य अपने उपादान के द्वारा उपादेय अर्थात् अभिन्न रूप से परिणमनीय होता है तो निमित्त में नैमित्तिक, अर्थात् भिन्न रूप से सम्पादनीय है ।" पृष्ठ 7 पर भी पठनीय है, आचार्यश्री कृत श्लोक और उसकी व्याख्या - "यत्स्यान्निमित्तं विकरोति वस्तु नैमित्तिकं विक्रियते तदस्तु । वाह्निघृतं द्रावयतीत्यनेन, घृतं पुनः संद्रवतीश्रियेन ॥6॥ अन्वयार्थ – (यत् वस्तु विकरोति) जो वस्तु विकार पैदा कर देती है । (तद् निमित्तं स्यात्) वह निमित्त होती है । (विक्रियते नैमित्तिकं) जिसमें विकारपना या अन्यथापना हो जाता है वह नैमित्तिक होती है । जैसे - अग्नि घी को पिघला देती है (घृतं पुनः संद्रवति) फिर घी भी पिघल जाता है इसमें अग्नि निमित्तस्वरूप है और द्रवीभूत घी नैमित्तिकरूप है।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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