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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण __ शुभ और अशुभ भाव (पाप-पुण्यभाव) में यदि विशेषता लानी हो तो श्री अरहंत भगवान की शरण ग्रहण करनी होगी । ये अशुभ की तरह शुभभाव का भी त्याग करके स्वयं शुद्धता को प्राप्त कर चुके हैं एवं औरों को भी उसका उपदेश दे रहे हैं । ऐसे अरहन्तों को आदर्श मानकर उनका गुणानुवाद गानेवाले महाशय के अंतस्तल में यह विश्वास होना अवश्यम्भावी है कि जिस प्रकार अरहन्तों ने अपने आपको शुद्ध करके बताया है उसी प्रकार का प्रयत्न यदि मैं भी करूं तो अपनी आत्मा में विकार रूप से उत्पन्न होनेवाला रागादि भावों को धीरे-धीरे अभ्यास के बल से घटाते हुए अन्त में इनका सर्वथा अभाव कर सकता हूँ ......... इस प्रकार अरहन्तों को जानना, मानना एवं गुणानुवाद करना प्रकारान्तर से अपने
आत्मतत्त्व को ही जानना, मानना एवं गुणानुवाद करना है । अरहन्तों के प्रति वास्तविक अनुराग रखनेवाले व्यक्ति की आत्मतत्त्व की भूल दूर हो जाती है जिससे अब इसका शुभभाव उपर्युक्त शुभभाव (पापानुबन्धी पुण्य) से भिन्न जाति का हो जाता है । अपने उत्तर काल में शुद्धता विधायक होने से वास्तविक शुभोपयोग होता है ।"
शङ्का - ग्राह्य तो शुद्ध को करना चाहिए अशुभ की तरह शुभ भी त्याज्य ही है क्योंकि आत्मा जैसे अशुभ का त्याग करके शुभ को स्वीकार करता है वैसे ही शुभ का भी त्याग करके अन्त में शुद्ध बन जाता है ।
उत्तर - अशुभ का प्रध्वंसाभाव शुभ है । शुभ का प्रध्वंसाभाव शुद्ध है यह बात तो ठीक है । "चारित्रमोह के साथ दर्शनमोह का भी होना अशुभोपयोग है किन्तु दर्शनमोह दूर होकर चारित्रमोह का रहना शुभोपयोग है और चारित्रमोह का भी अभाव हो जाना शुद्धोपयोग है ।" अशुभ और शुभ ये दोनों तो, कृत्यतत्परतामय होते हैं किन्तु शुद्ध कृत्याभावरूप, कृतकृत्यतामय होता है, इतना इनमें भेद हैं ।"
सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि शुद्धोपयोग की अपेक्षा दोनों ही शुभोपयोग और अशुभोपयोग हेय हैं क्योंकि दोनों ही अशुद्ध हैं दोनों में राग का सद्भाव है, किन्तु व्यवहार की दृष्टि से अशुभ हेय है और शुभ ग्राह्य है । निचली दशावालों के लिए तो शुभ या पुण्य ही धर्म है अशुभ या पाप नहीं । वह सर्वथा त्याज्य है । तीन वस्तुयें हैं - अमृत, दूध और विष । यदि अमृत प्राप्त हो रहा हो तो विष की त्याज्यता की तरह दूध भी त्याज्य है किन्तु उसके अभाव में तो कौन विवेकी दूध को छोड़कर विष ग्रहण करेगा । शुद्धोपयोग तो अमृत के समान है उसके अभाव में तो कल्याणदायी दूध के समान शुभोपयोग ही उपादेय है । शुभ और अशुभ (पुण्य-पाप) में महान अन्तर है । कहा भी है -
हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः ।
हेतु शुभाशुभौभावी कार्ये चैव सुखासुखे ॥ । - कारण और कार्य की विशेषता की दृष्टि से पुण्य-पाप में अन्तर है । पुण्य का कारण शुभभाव और पाप कारण अशुभभाव है तथा पुण्य का कार्य सुख और पाप का कार्य दुःख है।