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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण उत्तर - संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पशु सम्यग्दर्शन सहित अणुव्रतों का पालक हो सकता है यह बात तो ठीक है किन्तु चतुर्थादि सकषाय गुणस्थानों में जो सम्यग्दर्शन होता है वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहलाता है । इस अवस्था में आत्मानुभव न होकर आत्मतत्त्व का श्रद्धान होता है। (देखें गोम्मटसार की गुणस्थान परिभाषायें) जो सद्गुरु संदेश के अनुमननात्मक श्रुतज्ञानांश को लिए होता है । अनुभवनात्मक निश्चय (वीतराग) सम्यग्दर्शन तो महर्षि लोगों के परम समाधिकाल में ही बनता है । इसको स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थकार के सम्यक्त्वसार शतक को देखना चाहिए या श्री समयसारादि पूर्वाचार्यप्रणीत ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।" यहाँ विचारणीय है कि अनुभव का अर्थ रसास्वादन है । वस्तु जैसी होगी वैसा ही उसका आस्वादन होगा । गुड़ को चखकर चीनी का रसास्वादन नहीं हो सकता । नीम को चखकर मिश्री का अनुभव नहीं हो सकता । उसी प्रकार जिस गुणस्थान में होगा उसी रूप आत्मा का तो अनुभव होगा । मोक्षमार्ग में संसारी अनुभव या मिथ्यात्व और कषाय का अनुभव परिगणित नहीं होता । जब तक कषायांश है तब तक परमार्थ से आत्मानुभव यानी शुद्ध आत्मानुभव नहीं होगा । क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय संयुक्त होने पर आत्मा तद्रूप हो जाता है तो अनुभव तो उसी का होगा । एतदर्थ श्री आ. ज्ञानसागरजी महाराज ने आर्ष परम्परानुसार परमसमाधिकाल गुप्ति अवस्था में इसकी स्वीकृति दी है । पूर्व अवस्था में मन की विश्रान्ति नहीं है । परिग्रह विषाय-कषाय इसमें बाधक कारण है यहाँ समयसार नाटक के दो छन्द प्रस्तुत है - जाहँ पवन नहिं संचरै तहाँ न जल कल्लोल । तैसे परिग्रह छाँडिकै मनसर होय अडोल ॥ वस्तु विचारत ध्यावतै मन पावै विश्राम । रस स्वादत सुख ऊपजै अनुभव याको नाम ॥ आ. कुन्दकुन्द ने जो कहा है उस भाव को आ. अमृतचन्द्रजी ने निम्न कलश में व्यक्त किया है - य एव मुक्तवा नम पक्षपातं स्वरूपगुप्ताः निवसन्तिनित्यम् । विकल्पजालच्युत शान्तचित्तास् त एव साक्षादभृतं पिबन्ति ॥69॥ - जो नय पक्ष को छोड़कर अर्थात् निर्विकल्प होकर निरन्तर स्वरूप में गुप्त यानी त्रिगुप्ति अवस्था में समस्त विकल्पजाल से रहित शान्त चित हो जाते हैं वे ही साक्षात् आत्मानुभव रूप अमूल का पान करते हैं । वास्तव में मन की स्थिरता, स्वच्छता और अनुभव एकार्थवाची हैं । जब जल की कल्लोलें समाप्त हो जाती है तो चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब स्वयमेव प्रकट हो जाता है । श्रद्धा मात्र को अनुभव नहीं कहते जब ज्ञानोपयोग चारित्र में ध्यानरूप हो जाता है तो अनुभव कहलाता है । यह ज्ञान गुण की पर्याय है जो वीतरागचारित्र के अविनाभावी है । हाँ, सम्यग्दर्शन के होने पर ही अनुभव होता है सो ठीक ही है क्योंकि दर्शन-ज्ञानचारित्र तीनों की एकताही मोक्षमार्ग है और अनुभव को मोक्षमार्ग कहें तो भी ठीक है । मोटे तौर पर तो अनुभव शब्द का प्रयोग कहीं भी किया जा सकता है । उपचरित-व्यवहार
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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