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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 45 है वह बेरोकटोक सीधा शीघ्रता से चला जा रहा है । दूसरा भी उसी सड़क पर धीरे-धीरे बीच में विश्राम लेते हुए चल रहा है । ये दोनों एक ही पथ के पथिक हैं परन्तु चलने में उत्तमता पहले मनुष्य की है । इसी प्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी इन दोनों का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मार्ग एक ही है । दोनों ही मुक्ति को लक्ष्य में लेकर चलते हैं अतः दोनों ही धर्मानुयायी हैं । भेद इतना ही है कि वह (शुद्धोपयोगी) खेद रहित है और यह (शुभोपयोगी) खिन्नता को लिए हुए है जैसा कि टीकाकार श्री अमृतचन्द्र लिखते "यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रःसाक्षान्मोक्षमवाप्नोति। यदातु धर्म परिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथञ्चिद् विरुद्ध कार्यकारिचारत्रिः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धभवाप्नोति ।" आचार्य महाराज कहते हैं कि मानलो दो मनुष्य हैं जिनके रूक्ष हवा लगने से शरीर में दर्द हो गया है । दोनों ठीक होना चाहते हैं । इनमें एक व्यायामशील है जो दण्ड बैठकादि करके पसीना निकल जाने में अनायास ही स्वस्थ हो जाता है । दूसरा अपने शरीर के दर्द को मिटाने के लिए अग्नि पर उष्ण किये हुए तेल या घृत की मालिश करता है जिससे उसका दर्द तो धीरे-धीरे कम हो जाता है परन्तु इसके जो गरम-गरम तेल लगाया जा रहा है उसकी कुछ पीड़ा भी हो रही है । इसी प्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ये दोनों ही मोक्षमार्गी हैं । दोनों ही धर्मात्मा हैं परन्तु इनमें से शुद्धोपयोगी जीव तो अपनी पूर्ण शक्ति से धर्म में लगा हुआ रहता है अतः साक्षात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है और शुभोपयोगी जीव भी धर्मरूप अवश्य परिणत हो रहा है फिर वह अपनी शक्ति दबी हुई होने से अपना अभीष्ट कार्य पूरा न कर सकने के कारण सुधार रूप चेष्टा के साथ-साथ बिगाड़ रूप चेष्टा को भी लिए हुए होता है अतः स्वर्ग सुख प्राप्त करता है । मतलब यह है कि शुभोपयोगी जीव अपूर्ण धर्मात्मा होता है । अशुभपयोगी जीव तो सर्वथा ही धर्मशून्य अधर्मी पापी होता है जिससे वह कुयोनियों में परिभ्रमण करता रहता है । ....... यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है । इससे शुभोपयोगी अच्छा है क्योंकि इसके हो जाने पर धर्म की अभिरुचि अवश्य होती है परन्तु उस धर्म की पूर्णता शुद्धोपयोगी के बिना नहीं हो सकती । सारांश ......... शुद्धोपयोग उसी पुरुष के होता है जो सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वों के श्रद्धान करके अपने उपयोग को अशुभ से हटाकर शुभरूप बना लेता है । वाह्य सम्पूर्ण पदार्थों का त्याग करते हुए संयम धारण करके साधु दशा को स्वीकार कर लेता है फिर अपने अन्तरंग में भी स्फुरायमान होनेवाले राग द्वेषभाव पर भी विजय प्राप्त करता हुआ पूर्ण विरागता पर आ जाता है । उसकी दृष्टि में न तो कोई शत्रु ही होता है न कोई मित्र ही होता है । वह सुख और दुःख को बिल्कुल समान समझता है । आत्मा में उत्पन्न होनेवाले काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और ईर्ष्या आदि विकारी भावों का मूलोच्छेद करके जबतक अपने आपको शुद्ध न बना लिया जाय तबतक वास्तविक पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती है और इन सब विकारों का मूलोच्छेद इस
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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