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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
37 वीरोधाभास अलंकार एवं यमकालंकार की पद्धति में अनेकान्त को सह-अस्तित्व का सूत्र निरूपित किया गया है।
और भी देखिए, दीपेऽञ्जनं वार्दकुले तु शम्पां गत्वाम्बुधौ वाडवमप्यकम्पा । मेधा किलास्माकमियं विभाति जीयादनेकान्तपदस्य जातिः ॥
__- सर्ग 19-22 - दीपक में अञ्जन, बादलों में बिजली और समुद्र में वडवानल को देखकर हमारी बुद्धि निःशङ्क रूप से स्वीकार करती है कि भगवान् का अनेकान्तवाद सदा जयवन्त है ।
उपरोक्त परस्पर विरोधी तत्त्वों के सह-अस्तित्व को देखकर यही मानना पड़ता है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म हैं । इसी अनेक धर्मात्मकता का दूसरा नाम अनेकान्त है। इसकी सर्वत्र सदा विजय होती है । आचार्य समन्तभद्र ने कहा भी है - "जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य . शासनं जिनशासनम् ।"
अनेकान्त की विजय का मूल कारण अपेक्षा दृष्टि अथवा स्याद्वाद है।आचार्यज्ञानसागरजी महाराज ने सर्ग 14 में अपेक्षा प्रयोग से द्रव्य की नित्यता और अनित्यता दोनों की सिद्धि की है। सचेतनाचेतनभेदभिन्नं . ज्ञानस्वरूपं च रसादिचिन्हम् । क्रमाद् द्वयं यो परिणामि नित्यं यतोऽस्ति पर्यायगुणैरितीत्यम् ॥25॥
यहाँ आशय यह है कि गुणों की अपेक्षा चेतन-अचेतन सभी द्रव्य नित्य हैं एवं पर्यायों की अपेक्षा अनित्य या परिणामी हैं । यहाँ स्पष्ट है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ये तीन लक्षण पर्यायार्थिक नय एवं द्रव्यार्थिक नय दोनों अपेक्षाओं से ही सिद्ध होते हैं ।
20. सप्तभंगी नय आचार्य ज्ञानसागरजी ने वीरोदय के 19वें सर्ग के प्रारंभ में सप्तभंगी नय की उत्थानिकास्वरूप कतिपय श्लोकों की रचना की है उनमें एकादि को प्रस्तुत करना चाहूँगा। प्राग्रूपमुज्झित्य समेत्यपूर्वमेकं हि वस्तूत विदो विदुर्वः । हे सज्जनास्तत्रयमेककालमतो विरूपं वदतीति बालः ॥2॥ ____ - प्रत्येक वस्तु अपने पूर्व रूप (अवस्था) को छोड़कर अपूर्व (नवीन) अवस्था को धारम करती है फिर भी वह अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ती। ऐसा ज्ञानीजनों ने (कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने प्रवचनसार आदि में) कहा है । सो हे सजनों आप लोग भी वस्तु की वह उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक त्रिरूपता एक काल में ही अनुभव कर रहे हैं । जो वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ हैं ऐसे मूर्खजन ही वस्तु को इससे विपरीतस्वरूप वाली कहते हैं । भावार्थ यह है जो केवल उत्पाद या व्यय या ध्रौव्य को ही वस्तुस्वरूप कहते हैं वे यथार्थ से अनभिज्ञ ही हैं । कुछ