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________________ 28 - आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण - अव्रतों से पाप का बंध होता है और व्रतों से पुण्य का और दोनों के व्यय को (पाप-पुण्य के व्यय को) मोक्ष कहते हैं अतः मोक्षार्थी को अव्रतों के समान व्रतों को भी छोड़ देना चाहिए । (क्रम यह है) अव्रतों को, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह को परित्याग कर व्रतों में निष्ठावान होकर रहे अर्थात् व्रतों को अत्यन्त रूप से और रुचिपूर्वक ग्रहण कर उनमें अपेक्षित काल तक सफल निर्वाह कर संयमी रूप में अवस्थित होकर और आत्मा के परमपद को प्राप्त कर उनको (व्यवहार व्रतों को) छोड़ देवें । यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि परमपद प्राप्त होने पर ग्रहण त्याग का न तो अवकाथ है न विकल्प । अतः उस स्थिति में पहुँचते-पहुँचते व्रत स्वतः छूट जाते हैं उनको छोड़ा नहीं जाता । व्रतों को छोड़कर, पुण्य को छोड़कर या पाप में रहते हुए परमपद में नहीं पहुँचा जाता । मोक्षार्थी का पुण्यभाव ही शुद्धभाव के रूप में परिणत हो जाता है । यही कारण है कि व्रतों के ग्रहण हेतु तो प्रतिज्ञा नियम लिये जाते हैं छोड़ने के लिए कहीं जिनशासन में प्रतिज्ञा नियम नहीं निरूपित किये गये हैं । प्रतिक्रमण भी पाप का किया जाता है पुण्य कार्य या भाव का नहीं जिस प्रकार सीढ़ियों पर चढ़ते समय अग्रिम सीढ़ी पर पैर रखने का तो विकल्प होता है परन्तु नीचली सीढ़ी कब छोडूं, छोड़ना है यह विकल्प नहीं होता । ऊपर की सीढ़ी पर पैर रखने पर नीचे की तो अपने आप छूट जाती है । उसी प्रकार उपरिम भूमिका में अर्थात् शुद्धोपयोग में प्रवेश करते ही व्रत, शुभ स्वतः अपने आप छूट जाते हैं छोड़ना नहीं पड़ता और निश्चय व्रत तो छूटते नहीं । निश्चय व्रत को परमपद या परमसमाधि कहते हैं । (वृहद् द्रव्य संग्रह टीका देखें) यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार और निश्चय-मोक्षमार्ग दोनों आत्मा में ही हैं; आत्मा की ही पर्यायें हैं । यही आत्मा व्यवहार-मोक्षमार्ग रूप परिणत होता है और यही निश्चय-मोक्षमार्ग रूप । यही साध्य रूप है यही साधन रूप । मोक्षमार्ग एक है एक ही आत्मा में है किन्तु वह निश्चय-व्यवहार दो रूप है कहा भी है - एष ज्ञानधनो नित्यमात्मासिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकं समुपास्याताम् ॥5॥सम. कलश॥ ___- आत्मासिद्धि के इच्छुकों को निरन्तर इसी एक ज्ञानरूप आत्मा को साध्य-साधक द्वैधीमान युक्त एकत्व भावरूप से उपासना करना चाहिए । अतः जो लोग व्यवहार-मोक्षमार्ग को आत्मा से पर एवं जड़ की क्रिया मानते हैं उनकी यह मान्यता प्रगाढ़ मिथ्यात्व अन्धकार है एवं व्यवहार-मोक्षमार्ग को मात्र उपचार कहकर एवं उपचार को अवास्तविक निरूपित कर तथा 'कहा है ऐसा है नहीं' का घोष कर वे स्वयं पापपंक में डूबते हैं और अन्य जनों को भी दिग्भ्रमित करते हैं । हाँ, व्यवहार-मोक्षमार्ग परम्परा से एवं साक्षात् रूप से निश्चयमोक्षमार्ग मोक्ष का उपाय है । आचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों को ही मोक्षमार्ग के रूप में मान्यता दी है; अवलोकनीय है जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रायादि परिहरणं चरणं एसो द्र मोक्खपहो ।समयप्राभृत 162॥
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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