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________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 23 अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानम् ।पुरुषार्थ-59॥ आशय यह है कि जिनेन्द्र भगवान का नयचक्र अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला है । जैसे अज्ञानी मनुष्य चक्र की किसी और का पक्ष करने उस पर जोर देने अर्थात् संतुलन न कर पाने के कारण अपने ही मस्तक को काट डालता है उसी प्रकार नयचक्र अज्ञानी एकांत पक्षग्राही की बुद्धि को नष्ट कर देता है । जो नयचक्र पथ्य है वह अपथ्य हो जाता है । अतः नय प्रयोग में एक नय का हठाग्रह वर्जित है । 13. निश्चय - व्यवहार सम्यक्त्व ___इसकी चर्चा करते हुए आचार्य महाराज ने पृष्ठ 17 पर स्वरचित पद्य क्रमांक 13 की व्याख्या स्वरूप लिखा है - "श्री जिनभगवान के बताये अनुसार जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नव पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान करने रूप व्यवहार सम्यग्दर्शन प्राप्त करके चतुर्थ गुणस्थानवर्ती बनकर फिर पञ्चमादि गुणस्थानों में संवर और निर्जरा का उत्कर्ष एवं आस्रव और बन्ध का क्रमशः अपकर्ष करते हुए आगे बढ़कर अन्त में इतर समस्त जीवाजीवादि पदार्थों पर से अपनी चित्तवृत्ति हटाकर सिर्फ अपनी आत्मा के अनुभव करने में तल्लीनता रूप परम समाधिधारण कर ली जाती है उस पर पदार्थों में सम्पूर्ण तया उदासीनता रूप वीतराग छद्मस्थ अवस्था की हालत में जो इस जीव का एकान्त आत्मभिरुचि रूप परिणाम होता है उसी का नाम निश्चयसम्यक्त्व है । जैसा कि पं. दौलतरामजी ने भी अपने छहढालें में "पर द्रव्यनि तै भिन्न (हटकर) आप में रुचि सम्यक्त्व भला" इस वाक्य द्वारा प्रगट किया है और समयसारजी के तात्पर्यवृत्तिकार श्री जयसेनाचार्यजी ने तो "या चानुभूतिरात्मनः परमसमाधि काले सा चैव निश्चयसम्यक्त्व" इस प्रकार स्पष्ट ही लिखा है ।" आचार्यश्री ने पृष्ठ 2 पर इसी निश्चयसम्यक्त्वी को कारण समयसार लिखा है जो कि उपरोक्त प्रकार 11-12वें गुणस्थान में होता है । उनका सम्यक्त्व-विषयक निरूपण वर्तमान में अति उपयोगी है क्योंकि कानजी मतानुयायी एकान्त निश्चयाभासी पहले निश्चय और पश्चात् व्यवहार मार्ग का मिथ्या राग अलाप कर भोले-भाले जन-समुदाय को भ्रमित करते रहे हैं । तथा अपने को निश्चय-सम्यग्दृष्टि एवं निर्विकल्प स्वात्मानुभूति के धारक घोषित करते हैं । उलटे कार्य-कारण भाव को ग्रहण करने के कारण जिनकी मति और गति ही मिथ्या हो रही है । वे कुन्दकुन्द स्वामी और उनके कुछ ग्रन्थों का सहारा लेते हैं किन्तु वाणी का प्रयोग उनसे विरुद्ध करते हैं एवं श्रमण संस्कृति और आर्ष मार्ग से विपरीत चलते हैं । जो अपने को स्वयं निश्चय-सम्यग्दृष्टि कहते हैं और निर्बन्ध एवं मोक्षमार्गी मानते हैं, उनको सद्बुद्धि प्रदान करने हेतु निम्न कलश अति उपयोगी है - सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धों न मे स्यात् । इत्युत्तानोत्पुलकवदना .. रागिणोप्याचरन्तु ।
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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