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________________ 20 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण और और बातों में जब तक लगा हुआ होवे उपयोग । ऐसी हालत में हे भाई कहो कहाँ निजात्म का भोग mon - जो आदमी सकल श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान को प्राप्त होकर उसके द्वारा शुक्लध्यान रूप अवस्था को प्राप्त करता हुआ वह केवल अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव कर रहा हो उस समय वहाँ निश्चय (नय से) श्रुतकेवली है परन्तु वही द्वादशांग का ज्ञानी होकर भी जिस समय अपनी शुद्ध आत्मा के अनुभव रूपशुक्लध्यान में लग्न न होकर जीवाजीवादि सम्पूर्ण तत्त्वार्थों के जानने या अनुभव करने रूप धर्मध्यानमय होता है उस समय वह व्यवहार श्रुतकेवली कहलाता है । मतलब यह है कि इस पञ्चम काल के श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी वगैरह व्यवहार श्रुतकेवली थे क्योंकि साक्षात् शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदन ज्ञान नहीं था किन्तु यथायोग्य धर्मध्यान था ऐसा ही समयसारजी की गाथा नं.9 और 10 की टीका में श्री जयसेनाचार्यजी ने स्पष्ट लिखा है ।" आ. कुन्दकुन्द स्वामी ने एतद्विषयक गाथा में कहा है कि - भरहे दुक्खम काले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावट्ठिदं ण हु भण्णइ सो वि अण्णाणी मोक्षपाहुड़ 76॥ __- भरत क्षेत्र में दुःखमा काल में साधु के धर्मध्यान होता है (शुक्लध्यान नहीं), वह आत्मस्वभाव में स्थित है यह जो नहीं मानता वह अज्ञानी है । यहाँ यह बात स्पष्ट परिलक्षित है कि कुन्दकुन्द को साधु-पद की गरिमा बनाये रखना उसका सम्मान कराना अभीष्ट रहा था । साथ ही शास्त्र ज्ञान के समीचीन रूप को प्राप्त न कर भ्रम से अपने को शुद्ध उपयोगी, आत्मा का स्वसंवेदी, प्रत्यक्ष अनुभवी मान बैठने का निषेध किया है, देखिए - को विदिदच्छो साहू संपडिकाले भणेज रूवमिणं । पच्चक्ख मेवटुिं परोक्खणाणे पवदन्तो ॥217 समय प्राभृत॥ आचार्य ज्ञानसागरजी ने विवेकोदय के पद्य-7 का खुलासा करते हुए निश्चय नय का विषय शुद्धता और व्यवहार का विषय अशुद्धता के सद्भाव को स्पष्टरूप से प्रकट किया 12. शुद्धाशुद्धत्व "विकार है कर्मों के संयोग से परन्तु है आत्मा में ही । आत्मा खुद ही उस विकार रूप परिणत हो रहा है, अशुद्ध बना हुआ है और जब अशुद्धता है तब शुद्धता कहाँ । अशुद्धता और शुद्धता दोनों ही अवस्थायें हैं । ...... इसी प्रकार जीव की शुद्धता और अशुद्धता का हिसाब है.। अशुद्धता आत्मा के जीवत्व यानी चेतना गुण का राग-द्वेषरूप परिणाम है और शुद्धता वीतरागता रूप परिणमन एवं ये दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं ।" आचार्य ज्ञानसागरजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी थे उन्होंने नय प्रमाण विषयक आगम का और अध्यात्म का गहन मन्थन किया था । वे निरन्तर शास्त्राभ्यास में निरत रहते थे उन्होंने उपरोक्त वर्णन करते समय कुन्दकुन्द के निम्न वाक्यों को हृदयंगम किया था -
SR No.006273
Book TitleNay Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivcharanlal Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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