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आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण
"व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः।" व्यवहार नय भिन्न कर्ता विषयक है । 8. "जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो।" (छहढाला)
उपरोक्त परिभाषायें निश्चय और व्यवहार के विस्तृत स्वरूप को समझने में सहायक होंगी । इन नयों की परिभाषायें अध्यात्म में बहुलता से प्राप्त होती है । सभी सापेक्ष रूप में ग्रहणीय है । पं. पू. आ. ज्ञानसागरजी के नय-निरूपण के हार्द एवं महत्व को हृदयंगम करने हेतु यहाँ दोनों नयों पर दृष्टिपात अपेक्षित है । विस्तार के भय से संक्षिप्त रूप में कुछ . ही लिखा जाता है।
6. निश्चय नय
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जिससे मूल पदार्थ का निश्चय किया जाता है वह निश्चय नय है । यह नय वस्तु के मूल तत्त्व को देखता है । यद्यपि पर-पदार्थों का सम्बन्ध भी वास्तविक है तथापि यह उसको दृष्टिगत नहीं करता है एक्स-रे के फोटो की भाँति । जैसे आत्मा और पुद्गल संसार में मिले हुए द्रव्य हैं परन्तु यह नय शरीरादि पर-द्रव्यों को पृथक् ही मानते हुए केवल द्रव्य की आत्मा को ही ग्रहण करता है । पर्यायों पर दृष्टि ही नहीं डालता है । आगम भाषा का द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा दृष्टि से निश्चय नय माना जा सकता है किन्तु पूर्णतया दोनों का स्वरूप एक नहीं है, क्योंकि वहाँ व्यवहार को भी द्रव्यार्थिक कहा है । निश्चय नय दो प्रकार का है 1. शुद्ध निश्चय नय, 2. अशुद्ध निश्चय नय । शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह शुद्ध निश्चय नय है । अशुद्ध द्रव्य जिसका प्रयोगलक्ष्य है वह अशुद्ध निश्चय नय कहलाता है । आगम भाषा में जिसे कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं । वृहद् द्रव्य संग्रह में उपरोक्त दोनों नयों का प्रयोग दृष्टव्य हैं :
"पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो ।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥8॥ ___ यहाँ अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा को चेतन परिणाम (भावकर्म राग-द्वेष) का कर्ता उल्लिखित किया है तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्ता बताया है । यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से अशुद्ध निश्चय नय का नामोल्लेख नहीं है । तथापि शुद्ध नय से अन्य निश्चय नय निरूपित किया है वह नय अशुद्ध निश्चय नय ही संभावित है । टीका दृष्टव्य है ।
समयसार कलश में शुद्ध नय का लक्षण निम्न प्रकार किया है । आत्मस्वभावं . परभावभिन्न - मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकं । विलीन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥
__ - आत्मस्वभाव को परभावों से भिन्न, आपूर्ण, आदि-अन्त से रहित, एकरूप तथा संकल्प-विकल्प जाल से रहित प्रकाशित करता हुआ शुद्ध (निश्चय) नय उदय को प्राप्त । होता है।