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नव पदार्थ
५. पन्द्रह प्रकार के सिद्ध (गा० १३-१६) :
स्वामीजी ने इन गाथाओं में सिद्धों के पंद्रह भेदों का वर्णन किया है। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है :
१. तीर्थ सिद्ध : तीर्थङ्कर के तीर्थ स्थापन के बाद जो सिद्ध हुए उन्हें तीर्थ सिद्ध कहते हैं; जैसे गणधर गौतम आदि ।
२. अतीर्थ सिद्ध : तीर्थ स्थापन के पहले अथवा तीर्थ का विच्छेद होने के बाद सिद्ध हुए अतीर्थ सिद्ध कहलाते हैं। जैसे मरुदेवी आदि।
३. तीर्थङ्कर सिद्ध : जो तीर्थङ्कर होकर साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना करने के बाद सिद्ध हुए हैं वे तीर्थङ्कर सिद्ध कहलाते हैं। जैसे तीर्थङ्कर ऋषभदेव यावत् महावीर।
४. अतीर्थङ्कर सिद्ध : जो सामान्य केवली होकर सिद्ध हुए हैं उन्हें अतीर्थङ्कर सिद्ध कहते हैं। जैसे गणधर गौतम आदि ।
५. स्वयंबुद्ध सिद्ध : जो स्वयं जातिस्मरणादि ज्ञान से तत्त्व जानकर सिद्ध हुए हैं उन्हें स्वयंबुद्ध सिद्ध कहते हैं। जैसे मृगापुत्र ।
६. प्रत्येकबुद्धि सिद्ध : जो बाह्य निमित से-जैसे किसी वस्तु को देखकर बोध प्राप्त कर सिद्ध हुए हैं वे प्रत्येकबुद्ध सिद्ध कहलाते हैं'।
७. बुद्धबोद्धित सिद्ध : जो धर्माचार्य आदि से बोध प्राप्त कर सिद्ध हुए हैं उन्हें बुद्धबोधित सिद्ध कहते हैं। जैसे मेघकुमार ।
८. स्वलिङ्गी सिद्ध : जो मुनि लिङ्ग में सिद्ध हुए हैं उन्हें स्वलिङ्गी सिद्ध कहते हैं। जैसे आदिनाथ भगवान के दस हजार मुनि।
६. अन्यलिङ्गी सिद्ध : जो अन्यमती-सन्यासी आदि के लिङ्ग से सिद्ध हुए हैं, उन्हें अन्यलिङ्ग सिद्ध कहते हैं। जैसे शिवराजर्षि ।
१. टीका (ठाणाङ्ग १.५१) में स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध सिद्ध का अंतर इस प्रकार बताया
है-स्वयंबुद्धों को बाह्य निमित्त बिना ही बोधि प्राप्त होती है जबकि प्रत्येकबुद्धों को बाह्य निमित्त की अपेक्षा होती है। स्वयंबुद्धों के पात्रादि बारह उपधि होती है। प्रत्येकबुद्धो को तीन प्राच्छादक-वस्त्र के सिवा नव उपधि होती है। स्वयंबुद्धों के पूर्वभव में श्रुत अध्ययन होता है और नहीं भी होता। प्रत्येक बुद्ध के नियम से होता है। स्वयंबुद्धों को आचार्यादि के समीप हा लिङ्क-ग्रहण होता है जबकि प्रत्येकबुद्धों को देव ही लिङ्ग धारण कराते हैं।