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मोक्ष पदार्थ : टिप्पणी ४
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"वह स्थान कौन-सा है ?
"उस स्थान का नाम निर्वाण, अव्याबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध है। उसे महर्षि प्राप्त करते हैं।'
"मुने ! वह स्थान शाश्वत निवासरूप है, वह लोकाग्र पर है। वह दुरारोह है पर जिसने भव का अन्त कर उसे पा लिया उसके कोई शोच-फिकर नहीं रहती। "लागग्गाभावसुवगए परमसुही भवई-लोक के अग्र भाव पर पहुँचकर जीव परम सुखी होता है।
आचारांग में लिखा है :
"उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते-समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्म-मल रहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता होता है।
"मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न हस्व, न वृत्त-गोल । वह न त्रिकोण है, न चौरस, न मण्डलाकार । वह न कृष्ण है, न नील, न लाल, न पीला और न शुक्ल ही। वह न सुगन्धिवाला है, न दुर्गन्धिवाला है। वह न तिक्त है, न कडुआ, न कषैला, न खट्टा और न मधुर । वह न कर्कश है, न मृदु । वह न भारी है, न हल्का । वह न शीत है, न उष्ण। वह न स्निग्ध है, न रूक्ष । वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा, न आसक्त । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक।
“वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है, उसके लिए कोई उपमा नहीं। अरूपी सत्ता है। वह अपद है। वचन अगोचर के लिए कोई पद-वाचक शब्द नहीं। वह शब्दरूप नहीं, गन्धरूप नहीं, रसरूप नहीं, स्पर्श रूप नहीं। वह ऐसा कुछ भी नहीं। ऐसा मैं कहता हूँ । १. उत्त० २३.८०-८४ २. उत्त० २६.३८ ३. आचाराङ्ग श्रु० १ : अ० ५ उ० ६
सव्वे सरा नियट्टन्ति । तक्का जत्थ न विज्जइ । मइ तत्थ न गाहिया। ओए अप्पइहाणस्स खेयन्ने । से न दीहे न हस्से न वट्टे । न तसे न चउरंसे न परिमंडले । न कीण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्द न सुक्किले । न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे। न तित्ते न कडुए न कसाए न अंविले न महुरे न कक्खडे। न मउए न गरूए न लहुए। न सिए न उण्हें न निद्धे न लुक्खे । न काऊ न रहे न संगे। न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा। परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए। अरूवी सत्ता। अपयस्स पयं नत्थि। से न सद्द 1 रूवे न गन्धे न रसे न फासे इच्चव त्ति बेमि।