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नव पदार्थ
सिद्ध जीवों की ऊर्ध्वगति क्यों होती है इस सम्बन्ध में निम्न वार्तालाप बड़ा बोधप्रद है :
"हे भगवन् कर्म-रहित जीव के गति मानी गई है क्या ?" "मानी गई है गौतम !" "हे भगवन् ! कर्म-रहित जीव के गति कैसे मानी गई है ?"
"हे गौतम ! निस्संगता से, निरागता से, गति-परिणाम से, बन्ध-छेद से, निरीधनता से और पूर्व-प्रयोग से कर्म-रहित जीव के गति मानी गई है।"
“सो कैसे? भगवन् !"
“यदि कोई पुरुष एक सूखे छिद्ररहित सम्पूर्ण तूंबे को अनुक्रम से संस्कारित कर दाम और कुश द्वारा कस कर उस पर मिट्टी का लेप करे और धूप में सूखाकर दुबारा लेप करे और इस तरह आठ बार मिट्टी का लेप करके उस बार-बार सुखाये हुए तूंबे को, तिरे न जा सके, ऐसे पुरुष प्रमाण अथाह जल में डाले तो हे गौतम ! वैसे आठ मिट्टी के लेपों से गुरु, भारी और वजनदार बना तूंबा जल के तल को छेद कर अधः धरणी पर प्रतिष्ठित होगा या नहीं ?"
"होगा, हे भगवन !"
"हे गौतम ! जल में डूबे हुए तूंबे के आठ मिट्टी के लेपों के एक-एक कर क्षय होने पर धरती तल से क्रमशः ऊपर उठता हुआ तूंबा जल के ऊपरी सतह पर प्रतिष्ठित होगा या नहीं ?"
"होगा, हे भगवन् !"
"इसी तरह हे गौतम ! निश्चय ही निसंगता से, निरागता से, गति-परिणाम से कर्म-रहित जीव के गति कही गई है।" ।
"हे गौतम ! जैसे कलाय-मटर की फली, मूंग की फली, माष (उड़द) की फली, शिम्बिका की फली, एरंड का फल धूप में सुखाया जाय तो सूखने पर फटने से उनके बीज एक ओर जाकर गिरते हैं, उसी तरह हे गौतम ! बन्धन-छेद के कारण कर्म-रहित जीव के गति होती है।"
"हे गौतम ! ईंधन से छूटे हुए धुएँ की गति जैसे स्वाभाविक निराबाध रूप से ऊपर की ओर होती है, उसी तरह हे गौतम ! निश्चय से निरांधन (कर्मरूपी ईंन्धन से मुक्त) होने से कर्म-रहित जीव की उर्ध्व गति होती'।"
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भगवती १.६