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नव पदार्थ
के उदय में आने पर ही सुख-दुःख होता है। बांधे हुए कर्म शुभ होते हैं तो उन कर्मों का विपाक-फल शुभ-सुखमय होता है। बांधे हुए कर्म अशुभ होते हैं तो उदय काल में उन कर्मों का विपाक अशुभ-दुःखरूप होता है।
कर्म तीव्र भाव से बांधे हुए होते हैं तो उनका फल तीव्र होता है और मन्द भाव से बांधे हुए होते हैं तो फल मन्द होता है।
उदय में आने पर कर्म अपनी मूल प्रकृति के अनुसार फल देता है। ज्ञानावरणीय कर्म अपने अनुभाव-फल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का आच्छादन करता है और दर्शनावरणीय दर्शन का। इस तरह दूसरे कर्म भी अपनी-अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार ही तीव्र या मन्द फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शन का आच्छादन नहीं हो सकता और न दर्शनावरणीय कर्म से ज्ञान का। इसी तरह अन्य कर्मों के विषय में समझना चाहिए। यह नियम मूल प्रकृतियों में ही परस्पर लागू होता है। मूल प्रकृतियाँ फलानुभव में परस्पर अपरिवर्तनशील हैं। पर कुछ अपवादों को छोड़ कर उत्तर प्रकृतियों में यह नियम लागू नहीं पड़ता। एक कर्म की उत्तर प्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर प्रकृतिरूप परिणति कर सकती है। उदाहरणस्वरूप मतिज्ञानावरणीय कर्म, श्रुतज्ञानावरणीय कर्म में बदल सकता है। और ऐसा होने पर उसका फल भी श्रुतज्ञानावरणीय रूप ही होता है।
उत्तर प्रकृतियों में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का संक्रम नहीं होता। इसी प्रकार सम्यक् वेदनीय और मिथ्यात्व वेदनीय उत्तर प्रकृतियों का भी संक्रम नहीं होता। आयुष्य की उत्तरप्रकृतियों का भी परस्पर संक्रम नहीं होता। उदाहरणस्वरूप नारक आयुष्य, तिर्यञ्च आयुष्य रूप में संक्रम नहीं करता। इसी तरह अन्य आयुष्य भी परस्पर असंक्रमशील हैं।
१. (क) तत्त्वा० ८.२२ भाष्य :
उत्तरप्रकृतिषु सर्वासु मूलप्रकृत्यभिन्नासु न तु मूलप्रकृतिषु संक्रमो विद्यते,.. उत्तरप्रकृतिषु च दर्शनचारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्वेदनीयस्यायुष्कस्य च । (ख) तत्त्वा० ८.२२ सर्वार्थसिद्धि :
अनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च। सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति आयुर्दर्शनचारित्र मोहवर्जानाम् । न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते। नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहनमुखेनन, चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखन