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________________ बंध पदार्थ : टिप्पणी ३-४ ७०६ जाता है। न वह पूरा देख सकता है और न पूरा जान सकता है। वह पूर्ण चारित्रवान भी नहीं हो सकता। उसे नाना प्रकार के सुख दुःख वेदन करने पड़ते हैं। एक नियत आयु तक शरीर विशेष में रहना पड़ता है। उसे अनेक रूप करने पड़ते हैं-नाना गतियों में भटकना पड़ता है। नीच या उच्च गोत्र में जन्म लेना पड़ता है। वह अपनी अनन्त वीर्य शक्ति को स्फुरित नहीं कर सकता। इस तरह कर्म के बंधन से जकड़ा हुआ जीव नाना प्रकार से पराधीन हो जाता है- वह अपनी शक्तियों को प्रकट करने का बल खो चुका होता है। इस प्रकार कर्म की पराधीनता से जीव निःसत्त्व हो जाता है। उसका कोई वश नहीं चलता। श्री हेमचन्द्रसूरि लिखते हैं-“जीव कषाय से कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यह बन्ध है। वह जीव की अस्वतंत्रता का कारण है।" ३. बंध और तालाब का दृष्टान्त (दो० ३) : जिस तरह तालाब गृहीत जल से परिपूर्ण रहता है, इसी तरह संसारी जीव के आत्म-प्रदेश-गृहीत कर्मरूप परिणाम पाए हुए पुद्गल-स्कंधों से परिपूर्ण रहते हैं। जिस तरह संचित जल तालाब में स्थित रहता है, उसी प्रकार गृहीत कर्म आत्म-प्रदेशों में स्थित रहते हैं। यही बंध है। जिस तरह तालाब में स्थित जल निकलता रहता है, वैसे ही संचित कर्म भी सुख या दुःखरूप फल देकर आत्म-प्रदेशों से निकलते रहते हैं, इस तरह पुण्य-पाप निकलते हुए जल के तुल्य हैं और बन्ध तालाब में स्थित जल तुल्य । कर्मों का सत्तारूप अवस्थान बंध है और उनकी उदयरूप परिणति पुण्य पाप । संचित कर्म फल नहीं देते केवल सत्तारूप में रहते हैं, यह बंध है। संचित कर्म उदय में आ सुख या दुःख देते हैं, तब वे पुण्य या पाप संज्ञा से प्रज्ञापित होते हैं। ४. जीव-प्रदेश और कर्म प्रदेश (दो० ४) : इस विषय में पूर्व में विशेष प्रकाश डाला जा चुका है | जीव असंख्यात प्रदेशी द्रव्य है। वह प्रत्येक प्रदेश से कर्म-स्कंध ग्रहण करता है। कर्म-ग्रहण आत्मा के खास प्रदेशों द्वारा ही नहीं होता परन्तु ऊपर, नीची, तिरछी सब दिशाओं के आत्म-प्रदेशों द्वारा होता है। १. नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह : सप्ततत्त्वप्रकरण गा० १३३ : सकषायतया जीवः कर्मयोग्यांस्तु पुद्गलान्। यदादत्ते स बन्धः स्याज्जीवास्वातन्त्र्यकारणम् ।। २ देखिए पृ० २८५ अनुच्छेद ५ तथा पृ० ४१७ ३. देखिए पृ० २८ अनुच्छेद ४, पृ० २६ टि० ७ का अन्तिम अनुच्छेद और पृ० ४१-४२
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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