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________________ ७०८ ३. जिस तरह धातु और मिट्टी लोलीभूत होते हैं, उसी तरह बन्ध में जीव और कर्म लोलीभूत होते हैं' । जीव और कर्म का यह पारस्परिक बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है । न जीव पहले उत्पन्न हुआ, न कर्म पहले हुआ, न दोनों साथ उत्पन्न हुए, न दोनों अनादि काल से उत्पन्न हैं पर दोनों आदि रहित हैं और दोनों का सम्बन्ध आदि रहित है । बन्ध पदार्थ बेड़ी की तरह है। इसने जीव को पकड़ रखा है। जो मनुष्य अपने बन्धन को नहीं समझता, वह मोहान्ध है । जो बन्धन को बन्धन नहीं समझता वह बन्धन को तोड़ कर मुक्त नहीं हो सकता। भगवान ने कहा है- "बन्धन को जानो और तोड़ो।" २. बन्ध और जीव की परवशता ( दो० २ ) : आचार्य पूज्यपाद ने बन्ध की परिभाषा देते हुए लिखा है- "आत्मकर्मणोन्योऽन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बन्ध: ५ ।" जीव और कर्म के इस ओत-प्रोत संश्लेष को दूध और जल के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। जिस तरह मिले हुए दूध और पानी में यह नहीं बतलाया जा सकता कि कहाँ पानी है और कहां दूध है परन्तु सर्वत्र एक ही पदार्थ नजर आता है ठीक वैसे ही जीव और कर्मों के सम्बन्ध में भी यह नहीं बतलाया जा सकता कि किस अंश में जीव है और किस अंश में कर्म-पुद्गल । परन्तु सभी प्रदेशों में जीव और कर्म का अन्योन्य सम्बन्ध रहता है । जीव के सर्व प्रदेश कर्मों से प्रभावित रहते हैं । उसका थोड़ा भी अंश कर्मों से उन्मुक्त नहीं रहता। कर्म रहित जीव में - मुक्त जीव में अनेक स्वाभाविक शक्तियाँ होती हैं। परन्तु संसारी जीव अनन्त काल से कर्म संयुक्त होने से उन शक्तियों को प्रकट नहीं कर सकता। जीव के साथ कर्मों के बन्ध से उसके सब स्वभाविक गुण दबे हुए रहते हैं। इससे वह परवश - पराधीन हो १. २. तेराद्वार: दृष्टान्तद्वार ठाणाङ्ग १.४.६ टीका : आदि रहितो जीवकर्मयोग इति पक्षः ३. ठाणाङ्ग १.४.६ टीका ४. सुयगडं १,१.१.१.१ : ५. नव पदार्थ बुज्झिज्ज त्ति तिउट्टिजा बन्धनं परिजाणिया । तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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