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________________ ६७४ । नव पदार्थ ... कर्म-प्रायोग्य पुद्गल आत्मा की सत्-असत् प्रवृति द्वारा गृहीत होकर कर्म बनते हैं। कर्म की पहली अवस्था बंध है और अन्तिम अवस्था है वेदना । कर्म के विसम्बन्ध की अवस्था निर्जरा है। कर्म-फल का अनुभव वेदना है। वेदना के बाद भुक्तरस कर्म-पुद्गल आत्मा से दूर हो जाते हैं। यह निर्जरा है। बन्ध और वेदना या निर्जरा के बीच कर्म सत्तारूप में अवस्थित रहता है, किसी प्रकार फल नहीं देता। अवाधा काल-पकने का काल पूरा नहीं होता, तब तक कर्म फल देने योग्य नहीं बनता। अबाधा काल पूर्ण होने के पश्चात् फल देने योग्य निषेक बनते हैं, और फिर विपाकप्राप्त कर्म वेदना-फलानुभव के बाद झड़ जाते हैं। बन्धे हुए कर्म-पुद्गल विणकप्राप्त हो फल देने में स्मर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक प्रकट होने लगते हैं-यह उदय है। अबाधा काल में कर्म का अवस्थान मात्र होता है, पर कर्म का कर्तृत्य प्रकट नहीं होता। उस समय कोरा अवस्थान होता है, अनुभव नहीं। अनुभव अबाधा काल पूरा होने के बाद होता है। ___ काल मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारम्भ होता है। यह प्राप्त-काल उदय है। ऐसे स्वाभाविक प्राप्त काल उदय के अतिरिक्त दूसरे प्रकार का उदय अर्थात् अप्राप्त-काल उदय भी सम्भव है। भगवान महावीर ने गौतम से कहा था-"अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा-भव्य क. पुद्गलों की उदीरणा सम्भव है।" कर्म के काल-प्राप्त (स्वाभाविक) उदय में नये पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होत." बन्ध-स्थिति पूरी होती है, कर्म-पुद्गल अपने आप उदय में आ जाते हैं। उदीरणा द्वार, कर्मों को स्थिति-क्षय के पहले उदय में लाया जाता है। यह पुरुषार्थ-साध्य है। एक बार गौतम ने पूछा-"भगवन् ! अनुदीर्ण, उदीरणा-भव्य (कर्म-पुद्गलों) की जो उदीरणा होती है, वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम के द्वारा होती है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम के द्वारा ?" __ भगवान ने उत्तर दिया-"गौतम ! जीव उत्थान आदि के द्वारा अनुदीर्ण, उदीरणा १. भगवती १.३ गोयमा ! नो उदिण्णं उदीरेइ, नो अणुदिण्णं उदीरेइ. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्म उदीरेइ, णो उदयाणं तरपच्छाकडं कम्मं उदीरेइ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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