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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १७ १७. तप, संवर, निर्जरा (गा० ४६-५२) : इन गाथाओं में स्वामीजी ने निम्न तथ्यों पर प्रकाश डाला है : १. आत्म-शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक की हुई तपस्या किस प्रकार कर्म-क्षय करती है (गा० ४६)। २. आत्म-शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक तप किसके हो सकता है (गा० ४७-५१)। ३. संवर और निर्जरा का सम्बन्ध (गा० ४७-५१)। ४. तपस्या की महिमा (५०-५२)। नीचे इन पर क्रमशः प्रकाश डाला जा रहा है : १. आत्म-शुद्धि के लिए इच्छापूर्वक की हुई तपस्या किस प्रकार कर्म-क्षय करती है :. स्वामीजी ने सकाम तप की कार्य-प्रणाली को चुम्बक रूप में इस प्रकार बताया है : "ते करम उदीर उदे आंण खेरे"-वह कर्मों को उदीर्ण कर, उदय में ला उन्हें बिखेर देता है। इस विषय का सामान्य स्पष्टीकरण पहले आ चुका है। जिस तरह समय पाकर फल अपने आप पक जाते हैं उसी तरह नाना गति और जीव-जातियों में भ्रमण करते हुए प्राणी के शुभाशुभ कर्म क्रम से परिपाक-काल को प्राप्त हो अनुभवोदयावलि में प्रविष्ट हो फल देकर अपने आप झड़ जाते हैं। यह विपाकजा निर्जरा है। सकाम तप इस स्वाभाविक क्रम से कार्य नहीं करता। वह अपने सामर्थ्य से जिन कर्मों का उदयकाल नहीं आया होता है, उन्हें भी बलात् उदयावलि में लाकर झाड़ देता है। जिस तरह आम और पनस को औपक्रमिक क्रिया अकाल में ही पका डालती है उसी तरह सकाम तप उदयावलि के बाहर स्थित कर्मों को खींचकर उदयावलि में ले आता है। इस तरह उन कर्मों का वेदन हो उनकी निर्जरा होती है। सकाम तप अविपाकजा निर्जरा का हेतु होता है। १. देखिए पृ० ६१० (ऊ) २. तत्त्वा० ८.२३ सर्वार्थसिद्धि : तन्न चतुर्गतावनेकजातिविशेषावघूर्णिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपकजा निर्जरा। यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्योदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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