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________________ ६६४ नव पदार्थ में' आप्रतिलोभता-आराध्ययोग सर्व प्रयोजनों में अनुकूलता। यह विनय तप है। १३. वैयावृत्त्य (गा० ३८) आचार्यादि की यथाशक्ति सेवा करना वैयावृत्य तप कहा गया है। वह दस प्रकार (१) आचार्य का वैयावृत्य । (२) उपाध्याय का वैयावृत्य। - १. 'सर्वार्थ' का अर्थ मालवणियाजी ने स्थानांग समयवायांग (पृ० १४६) में सर्वार्थ न कर-'सेवार्थ' किया है जो अशुद्ध मालूम देता है। २. विनय तप के फल के विषय में (दश० १.१ की हारिभद्रीय टीका में) निम्नलिखित गाथाएँ मिलती हैं : विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम्। ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चाश्रवनिरोधः ।। सवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम्। तस्मात्क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम्।। योगनिरोधाद्रवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात्कल्याणानां सवषां भाजनं विनयः।। ३. वैयावृत्त्य शब्द की व्याख्या निम्न प्रकार है : (क) अहार आदि के द्वारा उपष्टम्भ-सेवा-करना वेयावृत्त्य है। व्यावृतभाव तथा धर्मसाधन के निमित्त अन्नादि का आचार्यादि को विधि से देना वैयावृत्त्य कहलाता वेयावच्चं वावडभावो तह धम्मसाहणनिमित्तं । अन्नाइयाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो।। (उत्त० ३०.३३ की नेमिचन्द्राचार्य टीका में उद्धृत) (ख) व्यापृतस्य शुभव्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं-शुभ व्यापारवाले का भाव अथवा कर्म वैयावृत्त्य कहलाता है। (ठाणाङ्ग ५.१.३६६ की टीका) (ग) व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं भक्तादिभिरूपष्टम्भः-विशेष रूप से रहने का भाव अथवा कर्म-भोजन आदि के द्वारा उपष्टम्भ-मदद। (ठाणाङ्ग ३.३ १८८ की टीका) उत्त ३०.३३ : आयरियमाइए वेयावच्चमि दसविहे। आसेवणणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं ।। ४.
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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