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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १२
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उल्लंघन-बिना सावधानी कर्दम आदि के ऊपर से निकलना (६) अनायुक्त प्रलंघन और (७) अनायुक्त सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनता'-सर्व इन्द्रियों की बिना उपयोग योगप्रवृत्ति।
(२) प्रशस्त काय विनय सात प्रकार का कहा गया है : (१) आयुक्त गमन-उपयोगपूर्वक गमन (२) आयुक्त स्थिति-उपयोगपूर्वक ठहरना (३) आयुक्त निषदन-उपयोगपूर्वक बैठना (४) आयुक्त शयन-उपयोगपूर्वक लेटना (५) आयुक्त उल्लंघन-उपयोगपूर्वक ऊपर से निकलना (६) आयुक्त प्रलंघन-उपयोगपूर्वक बार-बार उल्लंघन (७) आयुक्त सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनता-सर्व इन्द्रिय की उपयोगपूर्वक योगप्रवृत्ति ।
७. लोकोपचार विनय' के सात प्रकार हैं : (१) अभ्यासवृत्तिता-आचार्यादि के समीप में रहना (२) पराभिप्रायानुवर्तन-उनके अभिप्राय का अनुसरण (३) कार्यहेतु कार्य के लिए हेतु प्रदान–उदाहरणस्वरूप ज्ञानादि के लिए आहार देना (४) कृतप्रतिकृतिता प्रसन्न आचार्य अधिक ज्ञान देगें, ऐसी बदले की भावना (५) आगिवेषणता-आर्त-रोगी आदि साधु की सारसंभाल (६) देशकालज्ञता-अवसरोचित कार्य-सम्पादन और (७) सर्वार्थ
१. ठाणाङ्ग (७.३.५८५) में इसका नाम सवेंन्द्रिययोगयोजता मिलता है। २. लोकव्यवहारानुकूल वर्तन। ३. लोकोपचार विनय को 'उपचार' विनय भी कहा गया है। उसके प्रकारों का वर्णन निम्न गाथा में मिलता है :
अब्भासऽच्छगछंदाणुक्त्तणं कयपडिक्किई तहय। कारियणिमित्तकरणं दुक्खत्तगवेसणा तहय । तह देसकालजाणण सव्वत्थेसु तहयणुमई भणिया। उवआरिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ।।
(दशवैकालिक १.१ की हारिभद्रीय टीका में उद्धृत) ४. टिप्पणी न० ३ में उद्धृत गाथा में 'कार्यहेतु' के स्थान में 'कारियनिमित्तकरणं' भेद
बतलाया है। इसका अर्थ किया है-सम्यगथपदम् अध्यापितं अस्माकं विनयेन विशेषेण
वर्तितव्यं-हरिन्द्र। ४. इसका अर्थ हरिभद्र ने (दश० १.१ की टीका में) इस प्रकार किया है : प्रसन्ना
आचार्याः सूत्रमथं तदुभयं वा दास्यन्ति न नाम निजरेति आहारादिना यतितव्यं