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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १२ (१२) श्रुतज्ञान की अनाशातना, (१३) अवधिज्ञान की अनाशातना, (१४) मनः पर्यवज्ञान की अनाशातना, (१५) केवलज्ञान की अनाशातना, ( १६-३०) अरिहंत यावत् केवलज्ञान-इन पंद्रह की भक्ति और बहुमान, ( ३१-४५) अरिहंत यावत् केवलज्ञान- इन पंद्रह का गुणवर्णन कर कीर्ति फैलाना । ३. चारित्र विनय' पाँच प्रकार का कहा है : (१) सामायिक चारित्र विनय, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र विनय, (३) परिहारविशुद्धि चारित्र विनय, (४) सूक्ष्म-संपराय चारित्र विनय और (५) यथाख्यातचारित्र विनय । ४. मन विनय' दो प्रकार का कहा है : (१) अप्रशस्त मनविनय और (२) प्रशस्त मनविनय । (१) अप्रशस्त मन विनय बारह प्रकार का कहा है : (१) सावद्य-मन का हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त होना ( २) सक्रिय - मन का कायिक आदि क्रियाओं से युक्त होना (३) कर्कश - मन का कर्कशभावोपेत होना (४) कटुक - मन का अनिष्ट होना (५) निष्ठुर - मन का निष्ठुर - मार्दव रहित होना (६) कठोर - मन का कठोर -स्नेहरहित होना (७) आश्रवकर - मन का अशुभ कर्मों का उपार्जन करनेवाला होना (८) छेदनकारी - मन का छेदनकारी होना (६) भेदनकारी - मन का भेदनकारी होना (१०) परितापकारी - मन का परितापकारी होना (११) उपद्रवकारी - मन का मारणान्तिक वेदना करनेवाला होना और (१२) भूतोपघातिक - मन का भूतोपघातिक होना । इस प्रकार अप्रशस्त मन का प्रवर्तन नहीं करना चाहिए । (२) प्रशस्त मन विनय बारह प्रकार का कहा है : (१) असावद्य - मनकी पाप १. ६६१ २. ३. चारित्र में श्रद्धा तथा काय से चारित्र का संस्पर्श तथा भव्य सत्त्वों को उसकी प्ररूपणा करना चारित्र विनय कहलाता है। कहा है : सामाइयाइचरणस्स सद्दहाणं तहेव काएणं । संफासणं परुवणमइ पुरओ भव्वसत्ताणं ।। (दश : १.१ की हारिभद्रीय टीका में उद्धृत) मन को असावद्य, अपापक आदि रखना मन विनय तप है । औपपातिक में अप्रशस्त मन के १२ भेद बताये हैं और उनसे विपरीत प्रशस्त मन के भेद जान लेने को कहा है। भगवती (२५,७) में प्रशस्त मन के सात ही भेद बताये गए हैं जो इस प्रकार हैं- (१) अपापक (२) असावद्य (३) अक्रियक (४) निरुपक्लेशक (५) अनाश्रवकर (६) अक्षयिकर (७) अभूताभिशङ्कन। अप्रशस्त के सात भेद ठीक इनके विपरीत बताये हैं तथा पापक, सावद्य इत्यादि । ठाणाङ्ग (७.३.५८५) में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों मन-विनय के सात-सात भेद उल्लिखित हैं जो भगवती के वर्णन से मिलते हैं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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