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निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ६
(२) सोते हुए की उत्कृष्ट आतापना तीन प्रकार की है-(क) नीचे सुखकर सोना-उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, (ख) पार्श्व-बाजू के बल सोना-उत्कृष्ट-मध्यम और (ग) उत्तान-चित्त होकर सोना उत्कृष्ट जघन्य
तिविहा होइ निवन्ना ओमंथियपास तइय उत्ताण । (३) मध्यम आतापना के तीन भेद हैं-(क) गोदोहिका रूप मध्यम-उत्कृष्ट, (ख) उत्कुटिका रूप मध्यम-मध्यम और (ग) पर्यंक रूप मध्यम-जघन्य
गोदुइउक्कुडथलियं कमेस तिविहाय मज्झिमा होई। (४) जघन्य आतापना के तीन भेद हैं-(क) हस्तिसौंडिका' रूप जघन्य-उत्कृष्ट, (ख) एक पैर अद्धर और एक पैर जमीन पर रखकर खड़े रहना जघन्य-मध्यम और (ग) दोनों पैर जमीन पर खड़े रह आतापना लेना जघन्य-जघन्य आतापना है।
तइया उ हत्यिसोडंग पावस भवाइया चेव । ६. अप्रावृत्तकः अनाच्छादित देह-नग्न रहना। १०. अकण्डूयः खाज न करना। ११. अनिष्ठिवकः थूक न निगलना।
१२. सर्वगात्रप्रतिकर्मविभूषाविप्रमुक्तः शरीर के किसी भी अङ्ग का प्रतिकर्मशुश्रूषा और विभूषा नहीं करना। ९. प्रतिसंलीनता तप (गा० १५-२०):
छठा तप प्रतिसंलीनता तप है। यह चार प्रकार का कहा गया है:१-इन्द्रिय प्रतिसंलीनता,२-कषाय संलीनता, ३-योग प्रतिसंलीनता और ४-विविक्तशयनासनसेवनता।
___उत्तराध्ययन (३०,८) में छह बाह्य तपों के नाम बताते समय छठा बाह्य तप 'संलीयणा'-'संलीनता' बतलाया गया है। यही नाम समवायाङ्ग (सम० ६) में मिलता है। छठ बाह्य तप का लक्षण बताते समय उत्तराध्ययन (३०.२८) में 'विवित्तसयणासणं'-'विविक्तशयनासनता' शब्द का प्रयोग किया है। टीकाकार स्पष्टीकरण करते हुए लिखते हैं: "अनेन च विविक्तचर्या नाम संलीनतोक्ता। शेष संलीनतोपलक्षणमेषा
१. पुत पर बैठकर एक पैर को उठाना हस्तिसौण्डिका आसन है। २. उत्त० ३०.२८ की टीका में उद्धृत :
इंदियकसायजोगे, पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तह जा विवित्तचरिया, पन्नत्ता वीयरागेहिं।।