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________________ ६२४ नव पदार्थ यह परिभाषा हेतु-प्रधान है। निज हेतुओं से निर्जरा होती है उन्हें ही उपचार से कार्य मानकर यह परिभाषा दी गई है। निर्जरा के हेतु बारह प्रकार के तप हैं, उन्हें ही यहाँ निर्जरा कहा है। ४. स्वामीजी के अनुसार देशरूप कर्मों का क्षय कर आत्म का देशरूप उज्ज्वल होना निर्जरा है। इस परिभाषा के अनुसार निर्जरा कार्य है और जिससे निर्जरा होती है, वह निर्जरा की करनी है। निर्जरा एक है और निर्जरा की करनी बारह प्रकार की। कर्मों का देशरूप क्षय कर आत्म-प्रदेशों का देशतः निर्मल होना निर्जरा है और बारह प्रकार के तप, जिनसे निर्जरा होती है, निर्जरा की करनी के भेद हैं। स्वामीजी कहते हैं- 'निर्जरा' और 'निर्जरा की करनी'-दो भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं-एक नहीं। निर्जरा पदार्थ के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी लिखते हैं : “देशतः (अंशतः) कर्मों को तोड़कर जीव का देशतः (अंशतः) उज्ज्वल होना निर्जरा है। इसे समझने के लिए तीन दृष्टान्त हैं (१) जिस तरह तालाब के पानी को मोरी आदि द्वारा निकाला जाता है, उसी तरह भले भाव की प्रवृत्ति द्वारा कर्म को दूर करना निर्जरा है। (२) जिस तरह मकान का कचरा झाड़-बुहार कर बाहर निकाला जाता है,उसी तरह भले भाव की प्रवृत्ति द्वारा कर्म को बाहर निकालना निर्जरा है। (३) जिस तरह नाव का जल उलीच कर बाहर फेंक दिया जाता है, उसी तरह भले भावों की प्रवृत्ति द्वारा कर्मों को बाहर करना निर्जरा है। स्वामीजी ने गाथा १-४ में आत्मा को विशुद्ध करने की प्रक्रिया को धोबी के रूपक द्वारा स्पष्ट किया है। धोबी द्वारा वस्त्रों को साफ करने की प्रक्रिया इस प्रकार होती (१) धोबी जल में साबुन डाल कपड़ों को उसमें तपाता है। (२) फिर उन्हें पीट कर उनके मैल को दूर करता है। शान्तसुधरस : निर्जरा भावना १: यन्निर्जरा द्वादशधा निरुक्ता। तद् द्वादशानां तपसां विभेदात्।। हेतुप्रभेदादिह कार्यभेदः। स्वातंत्र्यतस्त्वेकविधैव सा स्यात् ।। २. तेराद्वार : दृष्टान्तद्वार
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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