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________________ ' ६२० नव पदार्थ आचार्य भिक्षु ने इस कोटि की करणी को जिन आज्ञा में माना है । यदि वह जिनाज्ञा में नहीं होती तो इसे अकाम निर्जरा नहीं कहा जाता । जो अकामनिर्जरा है वह सावद्य करणी नहीं है और जो सावध करणी नहीं है वह जिन-आज्ञा बाह्य नहीं है । इसलिए तत्त्व विवेचन के समय लक्ष्य और करणी को सर्वथा एक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए । सावद्य ध्येय के पीछे प्रवृत्ति ही सावद्य हो जाती है यह कारण बताया जाये तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि निरवद्य ध्येय के पीछे प्रवृत्ति निरवद्य हो जाती है 1 ऐहिक उद्देश्य से की गई तपस्या को हेतु की दृष्टि से निस्सार माना गया है उसके स्वरूप की दृष्टि से नहीं । जहाँ स्वरूप की मीमांसा का अवसर आया वहाँ स्वामीजी ने स्पष्ट बताया कि इस कोटि की तपस्या से थोड़ी-बहुत भी निर्जरा और पुण्य-बंध नहीं होता - ऐसा नहीं है । जैसा कि उन्होंने लिखा है- 'पाछे तो वो करसी सो उणने होय । पिण लाडू खवायां धर्म नहीं कोय' ।' 1 निष्कर्ष यह निकलता है कि सर्व श्रेष्ठ तपस्या वही है जो आत्म शुद्धि के लिए की जाती है, जो सकाम निर्जरा है। उद्देश्य बिना सहज भाव से भूख-प्यास आदि सहन करने से होनेवाली तपस्या अकाम निर्जरा है, यह उससे कम आत्म-शोधनकारक है । वर्णनागनतुआ के मित्र ने नागनतुआ का अनुकरण किया ( भग० ७-९) । यह अज्ञानपूर्वक तप है । अल्प निर्जरा कारक है । अन्तिम दोनों प्रकार के तप अकाम निर्जरा होते हुए भी विकृति नहीं हैं १. स्वामीजी के सामने दो प्रश्न थे - पौषध कराने के लिए लड्डू खिलाने वाले को क्या होता है और लड्डू के लिए पौषध करने वाले को क्या होता है। उद्धृत गाथा में स्वामीजी प्रथम प्रश्न का उत्तर दिया है। दूसरे प्रश्न का उत्तर यहाँ नहीं है। दूसरे प्रश्न का उत्तर उन्होंने जो दिया वह इस प्रकार है : लाडुआ साटें पोषा करें, तिण में जिन भाष्यों नहीं धर्म जी । ते तो इहलोक रे अरथे करें, तिणरो मूर्ख न जांणे मर्म जी ।। वैसी हालत में पाछे तो वो करसी सो उणने होय ।" इस अंश से जो यह निष्कर्ष निकाला गया है कि- "जहाँ स्वरूप की मीमांसा का अवसर आया वहाँ स्वामीजी ने स्पष्ट बताया है कि इस कोटि की तपस्या से थोड़ी-बहुत भी निर्जरा और पुण्य बन्ध नहीं होता, ऐसा नहीं है-वह फलित नहीं होता ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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