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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी १ ६१६ नवग्रीवेग जाय ए तो पाधरो न्याय छे । तिम कीर्त्त ने अर्थे, तिम राज, धन, पुत्रादिक ने अर्थे शील पाले ते पिण जाणवो। पिण सावज करणी सूं देवता न थाय।" मुनि श्री नथमलजी का इस विषयक विवेचन इस प्रकार है : “स्वामीजी का मुख्य सिद्धान्त था-'अनाज के पीछे तूड़ी या भूसा सहज होता है, उसके लिए अलग प्रयास जरूरी नहीं।' आत्मिक अभ्युदय के साथ लौकिक उदय अपने आप फलता है। संयम, व्रत या त्याग सिर्फ आत्म-आनन्द के लिए ही होना चाहिए। लौकिक कामना के लिए चलने वाला व्रत सही फल नहीं लाता। उससे मोह बढ़ता , है। _ 'पुण्य की-लौकिक-उदय की कामना लिए तपस्या मत करो', यह तेरापंथ का ध्रुव-सिद्धान्त है। धर्म का लक्ष्य भौतिक-प्राप्ति नहीं, आत्म-विकास है। भौतिक सुख आत्मा का स्वभाव । नहीं है। इसलिए वह न तो धर्म है और न धर्म का साध्य ही। इसलिए उसकी सिद्धि के लिए धर्म करना उद्देश्य के प्रतिकूल हो जाता है। इच्छा प्रेरित तपस्या नहीं होनी चाहिए। वह व्यक्ति को सही दिशा में नहीं ले जाती। फिर भी कोई व्यक्ति ऐहिक इच्छा से प्रेरित हो तपस्या करता है वह तपस्या बुरी नहीं है। बुरा है उसका लक्ष्य । लक्ष्य के साहचर्य से तपस्या भी बुरी मानी जाती है। किन्तु दोनों को अलग करें तब यह साफ होगा कि लक्ष्य बुरा है और तपस्या अच्छी। ऐहिक सुख-सुविधा व कामना के लिए तप तपने वालों को, मिथ्यात्व-दशा में तप तपने वालों को परलोक का अनाराधक कहा जाता है वह पूर्ण अराधना की दृष्टि से कहा जाता है। वे अंशतः परलोक के आराधक होते हैं। जैसे उनका ऐहिक लक्ष्य और मिथ्यात्व विराधना की कोटि में जाते हैं वैसे उनकी तपस्या विराधना की कोटि में नहीं जाती। ऐहिक लक्ष्य से तपस्या करने की आज्ञा नहीं है इसमें दो बातें हैं-तपस्या का लक्ष्य और तपस्या की करणी। तपस्या करने की सदा आज्ञा है। हिंसारहित या निरवद्य तपस्या कभी आज्ञा बाह्य धर्म नहीं होता। तपस्या का लक्ष्य जो ऐहिक है उसकी आज्ञा नहीं है-निषेध लक्ष्य का है, तपस्या का नहीं। तपस्या का लक्ष्य जब ऐहिक होता है तब वह आज्ञा में नहीं होता-धर्ममय नहीं होता। किन्तु 'करणी' आज्ञा बाह्य नहीं होती। इसलिए
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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