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________________ ५८८ नव पदार्थ लब्धियाँ षट् द्रव्यों में जीव और नौ पदार्थों में जीव और निर्जरा है'।" १२ तीन निर्मल भाव (गा० ६३-६५) : उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम-इन चारों भावों में उदयभाव बंध का हेतु है। और बाद के तीन भाव मुक्ति के हेतु। कर्मों के उदय से आत्मा मलीन होती है और उनके उपशम, क्षय और क्षयोपशम से निर्मल-उज्ज्वल । उपशम और क्षयोपशम आत्मा के प्रदेशों को सर्वतः उज्ज्वल नहीं करते, पर उनमें देश उज्ज्वलता लाते हैं। कर्मों के उपशम और क्षयोपशम से उत्पन्न भाव जीव के गुणरूप होते हैं। इन भावों से जीव को आत्मा के मूल स्वरूप की देश अनुभूति होती है। निर्जरा और मोक्ष में इतना ही अन्तर है कि मोक्ष आत्मा के शुद्ध स्वरूप की सम्पूर्ण विरति का अंश है वैसे ही निर्जरा मोक्ष का अंश है। जैसे सम्पूर्ण त्याग कर देने से देश विरति ही सम्पूर्ण विरति में परिणाम होती है वैसे ही सम्पूर्ण कर्म-क्षय होने पर निर्जरा ही मोक्ष का रूप धारण कर लेती है। जैसे समुद्र के जल का एक बिंदु समुद्र के समग्र जल से भिन्न नहीं होता वैसे ही निर्जरा मोक्ष १. झीणीचर्चा ३: ज्ञानावर्णी क्षायक निपन्न ते, छ में जीव पिछांण । नव में जीव ने निर्जरा, केवलज्ञान सुजाण।। दर्शनावर्णी क्षायक निपन्न ते, छ में जीव पिछांण। नव में दोय जीव निर्जरा, केवलदर्शन जांण।। मोह कर्म क्षायक निपन्न ते, छ में जीव सुजोय। नव में जीव संवर निर्जरा, दर्शण चारित्र दोय।। दर्शण मोह क्षायक निपन्न ते, छ में जीव है तांम। नव में जीव संवर निर्जरा, क्षायक सम्यक्त पाम ।। क्षायक सम्यक्त चौथा गुण ठाणां तणी, छ में जीव विख्यात; नव में दोय जीव निर्जरा, संवर नहीं तिलमात।। क्षायक सम्यक्त विरतवंत री, छ में जीव सुजाण । नव में जीव संवर कह्यो, पांचमां सूं पिछांण ।। चारित्र मोह क्षायक निपन्न ते, छ में जीव सुजाण । नव में जीव संवर विरत ते, क्षायक चारित्र पिछांण ।। अंतराय क्षायक निपन्न ते, छ में जीव पिछांण । नव में दोय जीव निर्जरा, पांच क्षायक लबध जांण ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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