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________________ ५८६ नव पदार्थ लब्धि वीर्य तो जीव का स्वगुण है और वह अन्तराय कर्म के दूर होने से प्रकट होता है। आठ आत्माओं में वीर्य आत्मा का उल्लेख है। अतः लब्धि वीर्य भाव जीव हैं। अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न लब्धियाँ आत्मा की अंशतः उज्ज्वलता की द्योतक हैं। क्षयोपशम से उत्पन्न यह स्वच्छता-उज्ज्वलता निर्जरा है। १०. मोहकर्म का उपशम और निर्जरा (गा० ५६-५७) : आठ कर्मों में उपशम एक मोहकर्म का ही होता है। अन्य सात कर्मों का उपशम नहीं होता' । मोहनीयकर्म के उपशम से जीव में जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं। सम्यक्त्व और चारित्र औपशमिक भाव हैं। मोहनीयकर्म दो प्रकार का है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के उपशम से उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है और चारित्र मोहनीय के उपशम से उपशम चारित्र। श्री जयाचार्य ने कहा है-“कर्म के उपशम से उत्पन्न भावों को उपशम भाव कहते हैं। प्रश्न है उपशम भाव छह द्रव्यों में कौन-सा द्रव्य है एवं नव पदार्थों में कौन-सा पदार्थ ? उपशम भाव षट् द्रव्यों में जीव है तथा नव पदार्थों में जीव और संवर।" ११. क्षायिक भाव और निर्जरा (गा० ५८-६२) : कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्षायिक भाव कहते हैं। क्षय आठों ही कर्मों का होता है। १. (क) अनुयोगद्वार ११३ : ते किं तं उवसमे ? उवसमे मोहणिज्ज कम्मस उवसमेणं, से तं उवसमे (ख) झीणी चर्चा ढा० २.२१ : सात कर्म रो तो उपशम न होवै, मोहकर्म रो होय। २. (क) झीणीचर्चा ढा० २.८ : उपशम निपन छ में जीव कही जै, नवतत्त्व मांहि दोय वर न्याय। जीव अनें संवर विहूं जांणो, कर्म उपशमिया निपना उपशम भाव।। (ख) वही ढा० ३.५ : मोहकर्म उपशम निपन्न ते, छ द्रव्य मांहि जीव । नव में जीव संवर कह्यो, उत्तम गुण है अतीव ।। ३. अनुयोगद्वार ११४ : से किं तं खइए ? खइए अट्ठण्हं कम्म पगडीणं खएणं से तं खइए
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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