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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ६ ५८५ वीर्य लब्धि का अस्तित्व निरन्तर रूप से चौदह गुणस्थान तक रहता है। बारहवें गुणस्थान तक यह क्षायोपशमिक भाव के रूप में रहता है और तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में क्षायिक भाव के रूप में । वीर्य लब्धि जीव का गुण है। वह जीव की एक प्रकार की शक्ति है और उत्कृष्ट रूप में वह अनन्त होती है। अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से वह देश रूप में प्रकट होती है और क्षय से अनन्त रूप में। यह पहले कहा जा चुका है कि वीर्य के तीन भेद हैं-बाल वीर्य, पण्डित वीर्य और बालपण्डित वीर्य। जो अविरत होता है उसके वीर्य को बाल वीर्य कहते हैं। चतुर्थ गुणस्थान तक जीव के विरति नहीं होती। अतः उस गुणस्थान तक के जीवों के वीर्य को बाल वीर्य कहते ___ जो सम्पूर्ण संयमी होता है उसके वीर्य को पण्डित वीर्य कहते हैं। संयमी छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है। अतः पंडित वीर्य का अस्तित्व भी इन गुणस्थानों में रहता है। जो कुछ अंशों में विरत और कुछ अंशों में अविरत होता है, उसे बालपंडित, श्रमणोपासक अथवा श्रावक कहते हैं। देशविरति पाँचवें गुणस्थान में होती है अतः बालपंडित वीर्य का अस्तित्व पाँचवें गुणस्थान में ही होता है। वीर्य शक्ति है और योग वीर्य के स्फोटन से उत्पन्न मन, वचन और काय का व्यापार | योग दो तरह के होते हैं-सावद्य और निरवद्य। पर वीर्य क्षयोपशम और क्षायिक भाव है अतः वह किंचित् भी सावध नहीं। वीर्य के अन्य दो भेद भी मिलते हैं-एक लब्धि वीर्य और दूसरा करण वीर्य । लब्धि वीर्य जीव की सत्तात्मक शक्ति है। लब्धि वीर्य सब जीवों के होता है। करण वीर्य क्रियात्मक शक्ति है-योग है-मन, वचन और काय की प्रवत्तिस्वरूप है। यह जीव और शरीर दोनों के सहयोग से उत्पन्न होती है। लब्धि वीर्य जीव की स्वाभाविक शक्ति है और करण वीर्य उस शक्ति का प्रयोग। जब तक शरीर-संयोग रहता है तभी तक करण वीर्य रहता है। जब तक करण वीर्य रहता है तब तक पुद्गल-संयोग होता रहता है। पौद्गलिक संयोग के अभाव में करण वीर्य नहीं होता। और न उसके अभाव में योग-व्यापार होता है। जब तक जीव के कर्म लगते रहते हैं उसके योग और करण वीर्य समझना चाहिए।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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