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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ४-५ ५७५ इसी तरह कर्मों के क्षयोपशम से जीव हमेशा कुछ-न-कुछ स्वच्छ-उज्ज्वल रहता है। जीव प्रदेशों की यह स्वच्छता-उज्ज्वलता निर्जरा है। जैसे-जैसे कर्मों का क्षयोपशम बढ़ता है वैसे-वैसे आत्मा के स्वाभाविक गुण अधिकाधिक प्रकट होते जाते हैं-आत्मा की स्वच्छता-निर्मलता-उज्ज्वलता बढ़ती जाती है। उज्ज्वलता का यह क्रमिक विकास ही निर्जरा है। ४. निर्जरा और मोक्ष में अन्तर (गा० ९) : निर्जरा शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है-“निजरणं निर्जरा विशरणं परिशटनमित्यर्थः।" इसका अर्थ है-कर्मों का परिशटन-दूर होना निर्जरा है। मोक्ष भी कर्मों का दूर होना ही है। फिर दोनों में क्या अन्तर है ? इसका उत्तर है-“देशतः कर्मक्षयो निर्जरा सर्ववस्तु मोक्ष इति ।" देश कर्मक्षय निर्जरा है और सर्व कर्मक्षय मोक्ष । आचार्य पूज्यपाद ने भी यही अन्तर बतलाया है-“एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। कृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्षः ।" निर्जरा का लक्षण है एकदेश कर्मक्षय और मोक्ष का लक्षण है सम्पूर्ण कर्म वियोग। ५. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और निर्जरा (गा० १०-१७) : गा० १०–१७ के भाव को समझने के लिए निम्न बातों की जानकारी आवश्यक है: (१)-ज्ञान पाँच प्रकार का है (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान और (५) केवलज्ञान । इनकी संक्षिप्त परिभाषा पहले दी जा चुकी है। यहाँ इन ज्ञानों की विशेषताओं पर कुछ प्रकाश डाला जा रहा है। (१) आभिनिबोधिकज्ञान (मतिज्ञान) : अभिमुख आये हुए पदार्थ का जो नियमित बोध कराता है उस इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। १. ठाणाङ्ग १.१६ टीका २. वही ३. तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि ४. (क) भगवती ८.२ (ख) नन्दी : सूत्र १ ५. देखिए पृ० ३०४ ६. नन्दी सू० २४ : अभिणिबुज्झइ ति आभिणिबोहियनाणं
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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