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________________ निर्जरा पदार्थ (ढाल : १)... १२. १३. समदृष्टि के कम-से-कम दो और अधिक-से-अधिक चार ज्ञान होते हैं। अधिक-से-अधिक चौदह पूर्व तक पढ़ सके, ऐसा क्षयोपशम भाव उसके रहता है । १४. १५. १६. १७. १८. मिथ्यात्वी के कम-से-कम दो और अधिक-से-अधिक तीन अज्ञान रहते हैं । उत्कृष्ट में देश- न्यून दस पूर्व पढ़ सके, इतना उत्कृष्ट क्षयोपशम अज्ञान उसको होता है । १६. मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम होने से मतिज्ञान और मति-अज्ञान उत्पन्न होते हैं। और श्रुतज्ञानावरणीय के क्षयोपशम होने से श्रुतज्ञान और श्रुत-अज्ञान। समदृष्टि आचाराङ्ग आदि १४ पूर्व का ज्ञानाभ्यास कर सकता है और मिथ्यात्वी देश- न्यून दस पूर्व तक का ज्ञानाभ्यास । अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से समदृष्टि अवधि ज्ञान प्राप्त करता है और मिथ्यादृष्टि को क्षयोपशम के परिमाणानुसार विभङ्ग अज्ञान उत्पन्न होता है । मनः पर्यवज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम होने से मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। यह प्रधान क्षयोपशम भाव सम्यक् दृष्टि साधु को उत्पन्न होता है । ज्ञान, अज्ञान दोनों साकार उपयोग हैं और इन दोनों का स्वभाव एक-सा है। ये कर्मों के दूर होने से उत्पन्न होते हैं और उज्ज्वल क्षयोपशम भाव हैं । दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से आठ उत्तम बोल उत्पन्न होते हैं - पाँच इन्द्रियाँ और तीन दर्शन । ये निर्जरा-जन्य उज्ज्वल बोल हैं। ५५५ ज्ञान, अज्ञान दोनों साकार उपयोग दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न भाव ( गा० १९-२३)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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