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________________ ५४२ नव पदार्थ नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं' ।। चारित्र जीव का स्वाभाविक गुण है अतः वह जीव से पृथक् नहीं किया जा सकता। पर वह चारित्रावरणीय कर्म के प्रभाव से ढक जाता है। जब मोहनयीकर्म घटता है तब चारित्र गुण प्रकट होता है और मनुष्य सामायिक चारित्र ग्रहण कर गुण-सम्पन्न होता है। चारित्रवरणीय कर्म मोहनीयकर्म का ही एक भेद है। उसके अनन्त प्रदेश होते हैं। उसके उदय से जीव के स्वाभाविक गुण विकृत हो जाते हैं और इससे जीव को अनेक तरह के क्लेश प्राप्त होते हैं। जब चारित्रावरणीय कर्म के अनन्त प्रदेश अलग होते हैं तो जीव अनन्तगुना उज्ज्वल हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह सावध योग का सर्वथा त्याग-प्रत्याख्यान करता है। यही सर्वविरति संवर है। . मोहनीयकर्म के प्रदेशों के दूर होने से दो बातें होती हैं-(१) जीव के प्रदेशों से कर्म झड़ते हैं-वह उज्ज्वल होता है। यह निर्जरा है। (२) सर्वविरति संवर होता है। नये कर्म नहीं बंधते। सर्वविरति संवर की विशेषता यह है कि उसके द्वारा सावद्य योगों की अविरति का सम्पूर्ण अवरोध हो जाने से नये कर्मों का आना रुक जाता है। मोहनीयकर्म क्षीण होते-होते अन्त में सम्पूर्ण क्षय को प्राप्त होता है। अब जीव अत्यन्त स्वच्छ होता है और उसे यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है। यथाख्यात चारित्र मोहनीयकर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न भाव है और सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वल चारित्र है। १३. संयम-स्थान और चारित्र-पर्यव (गा० ३३-४३) : संयम (चारित्र) की शुद्धि-अशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा से उसके अनेक भेद होते हैं | चारित्र मोहनीयकर्म का क्षयोपशम एक-सा नहीं होता। वह विविध मात्राओं में होता है। और इसी कारण संयम अथवा चारित्र के असंख्यात पर्यव-भेद अथवा स्थानक होते हैं। स्वामीजी ने संयतों के संयम-स्थान और चारित्र-पर्यवों के विषय में जो प्रकाश गा० ३३-४३ में डाला है उसका आधार भगवती सूत्र है। पाँच संयतों के संयम-स्थानों के विषय में उस सूत्र में निम्नलिखित वार्तालाप है : "हे भगवन् ! सामायिक संयत के कितने संयम-स्थान कहे हैं ?" १. उत्त० २८.११
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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