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________________ संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ७ (२) पाँच निर्ग्रन्थ संवरयुक्त हैं । भगवती में निर्ग्रन्थों का वर्णन इस प्रकार मिलता है : “निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के हैं - (१) पुलाक, (२) बकुश, (३) कुशील, (४) निर्ग्रन्थ और (५) स्नातक' ।" जो साधु संयमी होने तथा वीतराग-प्रणीत आगम से चलित न होने पर भी मूल उत्तरगुण में दोष लगाने से संयम को पुलाक - निस्सार धान के कण की तरह कुछ निस्सार करता है अथवा उसमें परिपूर्णता प्राप्त नहीं करता, उसे 'पुलाक-निर्ग्रन्थ' कहते हैं। ५३७ जो साधु उत्तरगुण में दोष लगाता है, शरीर और उपकरणों को सुशोभित रखने की चेष्टा में प्रयत्नशील होता है, ऋद्धि और कीर्त्ति का इच्छुक होता है तथा अतिचारयुक्त होता है, उसे 'बकुश निर्ग्रन्थ' कहते हैं । जिसका शील उत्तरगुण में दोष लगने से अथवा संज्ज्वलन कषाय से कुत्सित हुआ हो, उसे 'कुशील निर्ग्रन्थ' कहते हैं । जिसके कषाय क्षय को प्राप्त हो गए हों, वैसे-क्षीणकषाय अथवा जिसका मोह शान्त हो गया हो वैसे उपशान्तमोह मुनि को 'निर्ग्रन्थ' कहते हैं । जो समस्त घाती कर्मों का प्रक्षालन कर स्नात - शुद्ध हो गया हो और जो सयोगी अथवा अयोगी केवली हो, उसे 'स्नातक निर्ग्रन्थ' कहते हैं । स्वामीजी कहते हैं- पाँचों ही प्रकार के निर्ग्रन्थ सर्वविरति चारित्र में अवस्थित हैं । चारित्र मोहनयीकर्म की क्षयोपशमादि जन्य विशेषता के कारण निर्ग्रन्थों के पुलाक आदि पाँच भेद हैं। पाँचों निर्ग्रन्थों में संयम है । सब संवरयुक्त हैं । श्री जयाचार्य कहते हैं : "छह निर्ग्रन्थ छठे से चौदहवें गुणस्थानों में से भिन्न-भिन्न गुणस्थान में होते हैं। यदि कोई साधु नई दीक्षा आए वैसे दोष का सेवन करता है अथवा दोष की स्थापना करता है तभी छठा गुणस्थान लुप्त होता है। मासिक अथवा चौमासिक दण्ड से छठा गुणस्थान नहीं जाता। वह तो विपरीत श्रद्धा और स्थापना से तथा बड़े दोष के सेवन से जाता है । " १. झीणी चर्चा ढाल २१ : भगवती शतक पचीस में रे, छठे उसे जोय रे । छै नेठा कह्या जुवा २ रे भाई २, छठा स्युं चवदमें जोय || ३ || नूंइ दिख्या आवै जीसो रे, दोषण सेवै कोय रे । अथवा थाप करै दोषनी रे भाई २, फिरै छठो गुणठांणो सोय । २० ।। मासी चउमासी डड थकी रे, छठो गुणठाणो नहीं फिरै कोय रे । फिरै उंधी श्रद्धा तथा थाप थीरे भाई २ तथा जबर दोष थी जोय ।। २२ ।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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