________________
संवर पदार्थ (टाल : १) : टिप्पणी २
५१७
स्वामीजी का कथन है-मुनि का विधिपूर्वक आना-जाना, बोलना आदि कार्य शुभ योग हैं। वे पुण्य के हेतु हैं। उन्हें संवर कहना संगत नहीं। यदि शुभ योगों में प्रवृत्त मुनि के शुभ योगों से संवर माना जायगा तो उसका अर्थ यह होगा कि साधु के पुण्य का बंध होता ही नहीं । आगम में शुभ योगों से मुनि के भी स्पष्टतः पुण्य का बंध कहा है।
बावन बोल के स्तोक में प्रश्न है-पाँच समिति, तीन गुप्ति कौन-सा भाव और कौन-सी आत्मा है ? उत्तर में वहां बताया गया है-भावों में शुप्ति उदय को छोड़कर चार भाव है और आठ आत्माओं में गुप्ति चारित्र आत्मा है। समिति-क्षायक क्षयोपशम और पारिणामिक भाव है और आत्माओं में योग आत्मा है।
इससे भी समितियाँ योग ठहरती हैं।
गुप्तियों, समितियों का उल्लेख ठाणाङ्ग समवायाङ्ग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में मिलता है'| पाँच समिति और तीन गुप्तियों को आगमों में प्रवचन-माता कहा गया है। ३. दस धर्म :
जो इष्ट स्थान में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। धर्म के दस भेद को यतिधर्म, अनगार धर्म आदि भी कहा जाता है। इनका ब्यौरा इस प्रकार है :
(६) उत्तम क्षमा : उमास्वाति के अनुसार क्षमा का अर्थ है तितिक्षा, सहिष्णुता, क्रोध का निग्रह । आ० पूज्यपाद के अनुसार निमित्त के उपस्थित होने पर भी कलुषता को उत्पन्न न होने देना क्षमा है।
(१०) उत्तम मार्दव : उमास्वाति के अनुसार मृदुभाव अथवा मृदुकर्म को मार्दव कहते हैं। मदनिग्रह, मानविघात मार्दव है। जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, विज्ञान, श्रुत, लाभ और
१. (क) ठाणाङ्ग ६०३
(ख) समवायाङ्ग ३
(ग) उत्त० २४.१, २, १६-२६ २. (क) उत्त० २४.१, ३ :
(ख) समवायाङ्ग ८ ३. तत्त्वा ६.२ सर्वार्थसिद्धि :
इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्मः ४. तत्त्वा० ६.६ भाष्य ५. वही : सर्वार्थसिद्धि