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________________ संवर पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी १ ५०७ वास्तव में संवर केवल अशुभ आस्रवों के निग्रह का ही हेतु नहीं है अपितु वह शुभ आस्रवों के निग्रह का भी हेतु है। (३) संवर का. अर्थ है आत्म-प्रदेशों को स्थिरभूत करना : सास्रव अवस्था में जीव के प्रदेशों में परिस्पंदन होता रहता है। आस्रवों के निरोध से जीव के चञ्चल प्रदेश स्थिर होते हैं। आत्मप्रदेश की चञ्चलता आस्रव-द्वार है और उनकी स्थिरता संवर-द्वार' | आस्रव से नये-नये कर्म प्रविष्ट होते रहते हैं। संवर से नये कर्मों का प्रवेश रुक जाता है। (४) संवर आत्म-निग्रह से होता है : आस्रव पदार्थ ही एक ऐसा पदार्थ है जिसका निरोध किया जा सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष के निरोध का प्रश्न नहीं उठता। निरोध एक आस्रव-द्वार को लेकर उठता है। इसीलिए कहा है-"आस्रवनिरोधः संवर:"-आस्रव द्वार का निरोध करना संवर है। जितने निरोध्य कर्तव्य-कर्म हैं वे सब आस्रव हैं। निरवद्य-कर्तव्य पुण्य आने के द्वार-निरवद्य आस्रव-द्वार हैं। सावद्य-कर्तव्य पाप आने के द्वार-सावध आस्रव-द्वार हैं। निरोध्य कर्तव्यों का निरोध संवर-द्वार है। ___ संवर आत्म-निग्रह से-आत्मा को संवृत्त करने-उसको वश में करने से निष्पन्न होता है। वह निवृत्ति-परक है; प्रवृत्ति-परक नहीं। प्रवृत्तिमात्र आस्रव है और निग्रह-मात्र संवर। श्री हेमचन्द्र सूरि लिखते हैं "जिस उपाय से जो आस्रव रुके उस आस्रव के निरोध के लिए उसी उपाय को काम में लाना चाहिए। मनुष्य क्षमा से क्रोध को, मृदुभाव से मान को, ऋजुता से माया को और निःस्पृहता से लोभ का निरोध करे। असंयम से हुए विषसदृश उत्कृष्ट विषयों को अखंड संयम से नष्ट करे । तीन गुप्तियों से तीन योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को १. टीकम डोसी की चर्चा २. तत्त्वा ६.१ सर्वार्थसिद्धिः अभिनवकर्मादानहेतुरास्रवो... तस्य निरोधः संवर इत्युच्यते ३. तत्त्वा० ६.१
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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