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________________ संवर पदार्थ (ढाल : पदार्थ अथवा तथ्यभावों में रखा गया है'। इन सब से प्रमाणित है कि जैन-धर्म में संवर एक स्वतंत्र पदार्थ के रूप में प्ररूपित है । एक नौका को जल में डालने पर यदि उसमें जल प्रवेश करने लगता है तो वह आस्रविनी - सछिद्र सिद्ध होती है, यदि उसमें जल प्रवेश नहीं करता तो वह अनास्रविनी - छिद्ररहित सिद्ध होती है। इसी तरह जिस आत्मा के मिथ्यात्व आदि रूप छिद्र होते हैं, वह सास्रव आत्मा है और जिसके मिथ्यात्व आदि रूप छिद नहीं होते, वह संवृत्त आत्मा है। सास्रव आत्मा मानने से संवृत्त आत्मा अपने आप सिद्ध हो जाती है । (२) संवर आस्रव - द्वार का अवरोधक पदार्थ है : ठाणाङ्ग में कहा है-आस्रव और संवर प्रतिद्वन्द्वी पदार्थ हैं। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "जो शुभ - अशुभ कर्मों के आगमन के लिए द्वार रूप है, वह आस्रव है। जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, वह संवर है । स्वामीजी ने संवर के स्वरूप को उदाहरणों द्वारा निम्न प्रकार समझाया है* : १. तालाब के नाले को निरुद्ध करने की तरह जीव के आस्रव का निरोध करना है । संवर है । २. मकान के द्वार को बन्द करने की तरह जीव के आस्रव का निरोध करना संवर टिप्पणी १ १. ३. नौका के छिद्र को निरुद्ध करने की तरह जीव के आस्रव का निरोध करना संवर है । संवर और आस्रव के पारस्परिक सम्बन्ध और उनके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए मचन्द्र सूरि लिखते हैं - "जिस तरह चौराहे पर स्थित बहु-द्वारवाले ग्रह में द्वार बंद न होने पर निश्चय ही रज प्रविष्ट होती है और चिकनाई के योग से तन्मयं रूप से वही बंध जाती- स्थिति २. ३. ५०५ ४. (क) उत्त० २८. १४ ( पृ० २५ पर उद्धृत) (ख) ठा० ६.६६५ (पृ० २२ पा० टि० १ में उद्धृत) ठाणाङ्ग २.५६ : जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं, तंजहा...... आसवे चेव संवरे चेव तत्त्वा० १.४ सर्वार्थसिद्धि : शुभाशुभकर्मागमद्वाररूप आस्रवः । आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः । तेराद्वार: दृष्टान्त द्वार
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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