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________________ संवर पदार्थ (ढाल : १) ३३. ३४. ३६. ३५. मोहकर्म का उदय इस प्रकार घटता है । ऐसी उदय की हानि असंख्य बार होती है। इसीलिए सामायिक चारित्र के उत्तम असंख्यात स्थानक बतलाए हैं । ३७. जघन्य सामायिक चारित्र के अनन्त गुण पर्यव जानो । उदय में आए हुए अनन्त कर्म-प्रदेशों के दूर हो जाने से आत्मा के अनन्तगुण प्रकट हुए। ३६. जघन्य सामायिक चारित्रवाले के आत्म-प्रदेश अनन्तगुण उज्ज्वल होते हैं। उदय में आए हुए अनन्त कर्म-प्रदेशों के दूर होने से वे और भी विशेष रूप से अनन्तगुण उज्ज्वल होते हैं। ४० अनन्त कर्म-प्रदेशों का उदय मिट जाने से एक चारित्र स्थानक उत्पन्न होता है तथा अनन्त चारित्र गुण पर्यव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सामायिक चारित्र के अनेक भेद हैं । ३८. उत्कृष्ट सामायिक चारित्र की पर्यव-संख्या से भी सूक्ष्म संपराय चारित्र की पर्यव-संख्या अधिक होती है; जघन्य सूक्ष्म संपराय चारित्र की पर्यव संख्या सामायिक चारित्र की उत्कृष्ट पर्यव-संख्या से अनन्त हैं । छठे गुणस्थान से लेकर नौवें तक सामायिक जानो । इसके असंख्यात स्थानक और अनन्त पर्यव हैं। सूक्ष्मसंपराय चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है । जघन्य सामायिक चारित्र के अनन्त पर्यव जानो तथा उससे उत्कृष्ट सामायिक चारित्र के पर्यव उससे अनन्तगुण जानो । सूक्ष्मसंपराय चारित्र के भी असंख्यात स्थानक जानने चाहिए तथा सामायिक चारित्र की तरह एक-एक स्थान के अनन्त अनन्त पर्यव समझने चाहिए । ४६६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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