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नव पदार्थ
हैं और बाद की तीन प्रशस्त हैं। पहली संक्लिष्ट हैं और बाद की तीन असंक्लिष्ट । पहली तीन दुर्गति को ले जाने वाली हैं और बाद की तीन सुगति को।" ।
दिगम्बर ग्रन्थों में वे ही छ: लेश्याएँ मानी गयी हैं जो श्वेताम्बर आगमों में है। शुभ-अशुभ का वर्गीकरण भी उसी रूप में है।
लेश्या की परिभाषा दिगम्बर-ग्रन्थों में इस रूप में मिलती है-“जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ ।" कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन ने भी यही परिभाषा अपनाई
है।
__ श्री नेमिचन्द्र लिखते हैं : “जिस से जीव पुण्य-पाप को लगाता है अथवा उन्हें अपना करता है वह (भाव) लेश्या है।
आचार्य पूज्यपाद ने स्पष्टतः लेश्या के दो भेद-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या का उल्लेख किया है और भावलेश्या की वही परिभाषा दी है जो गोम्मटसार में प्राप्त है। गोम्मटसार में कहा है : “वर्णोदय से संपादित शरीरवर्ण द्रव्य लेश्या है। मोह के उदय,
१. प्रज्ञापना : लेश्यापद १७.४.४७
एवं तओ अविसुद्धाओ, तओ विसुद्धाओ तओ अप्पसत्थाओ, तओ पसत्थाओ तओ संकिलिट्ठाओ, तओ असंकिलिट्ठाओ
तओ दुग्गतिगामियाओ, तओ सुगतिगामियाओ २. गोम्मटसार : जीवकाण्ड ४६३ :
किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य।
लेस्साणं णिदेसा छच्चेव हवंति णियमेण ।। ३. वही : ४६६-५०० ४. गोम्मटसार : जीवकाण्ड : ४६० ५. पञ्चास्तिकाय २.११६ टीकाएँ :
(क) कषायानुरज्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या
(ख) कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या ६. गोम्मटसार : जीवकाण्ड ४८६ :
लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए णियअपुण्णपुण्णं च।
जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।। ७. तत्त्वा० २.६ सर्वार्थसिद्धि :
लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति । भावलेश्या कषायोदयराञ्जता योगप्रवृत्तिरिति