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________________ ४६८ नव पदार्थ हैं और बाद की तीन प्रशस्त हैं। पहली संक्लिष्ट हैं और बाद की तीन असंक्लिष्ट । पहली तीन दुर्गति को ले जाने वाली हैं और बाद की तीन सुगति को।" । दिगम्बर ग्रन्थों में वे ही छ: लेश्याएँ मानी गयी हैं जो श्वेताम्बर आगमों में है। शुभ-अशुभ का वर्गीकरण भी उसी रूप में है। लेश्या की परिभाषा दिगम्बर-ग्रन्थों में इस रूप में मिलती है-“जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ ।" कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन ने भी यही परिभाषा अपनाई है। __ श्री नेमिचन्द्र लिखते हैं : “जिस से जीव पुण्य-पाप को लगाता है अथवा उन्हें अपना करता है वह (भाव) लेश्या है। आचार्य पूज्यपाद ने स्पष्टतः लेश्या के दो भेद-द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या का उल्लेख किया है और भावलेश्या की वही परिभाषा दी है जो गोम्मटसार में प्राप्त है। गोम्मटसार में कहा है : “वर्णोदय से संपादित शरीरवर्ण द्रव्य लेश्या है। मोह के उदय, १. प्रज्ञापना : लेश्यापद १७.४.४७ एवं तओ अविसुद्धाओ, तओ विसुद्धाओ तओ अप्पसत्थाओ, तओ पसत्थाओ तओ संकिलिट्ठाओ, तओ असंकिलिट्ठाओ तओ दुग्गतिगामियाओ, तओ सुगतिगामियाओ २. गोम्मटसार : जीवकाण्ड ४६३ : किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य। लेस्साणं णिदेसा छच्चेव हवंति णियमेण ।। ३. वही : ४६६-५०० ४. गोम्मटसार : जीवकाण्ड : ४६० ५. पञ्चास्तिकाय २.११६ टीकाएँ : (क) कषायानुरज्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या (ख) कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या ६. गोम्मटसार : जीवकाण्ड ४८६ : लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए णियअपुण्णपुण्णं च। जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।। ७. तत्त्वा० २.६ सर्वार्थसिद्धि : लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति । भावलेश्या कषायोदयराञ्जता योगप्रवृत्तिरिति
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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