SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी : ६ ४५५ १८वाँ आस्रव है। मन की प्रवृत्ति मन योग, वचन की प्रवृत्ति वचन योग और काय की प्रवृत्ति का योग है ' । स्वामीजी के सामने एक प्रश्न था - योग आस्रव में केवल मन, वचन और काय के सावद्य योगों का ही समावेश होता है, निवरद्य योगों का नहीं । जीव के पाप लगता है पर पुण्य नहीं लगता । पाप ही पुण्य होता है। करनी करते-करते, पाप धोते-धोते पाप-कर्म दूर होने पर अवशेष पाप पुण्य हो जाते हैं। पुण्य पाप कर्म से ही उत्पन्न होता है। अशुभ योगों से पाप लगता है शुभ योगों से पुण्य नहीं लगता । 1 स्वामीजी ने विस्तृत उत्तर देते हुए जो कहा उसका अत्यन्त संक्षिप्त सार इस प्रकार है : "ठाणाङ्ग में जहाँ आस्रवों का उल्लेख है - वहाँ योग आस्रव कहा है। योग शब्द में सावद्य योग, निरवद्य योग दोनों ही आते हैं। योग आस्रव की जगह यदि अशुभ योग आस्रव होता तो ही शुभ योग आस्रव का ग्रहण नहीं होता । परन्तु योग आस्रव कहने से शुभ योग, अशुभ योग दोनों आस्रव होते हैं। पाँच संवरों में अयोग संवर का उल्लेख है। योग का निरोध अयोग संवर है। यदि अशुभ योग ही आस्रव होता, शुभ योग आस्रव नहीं होता तो अशुभ योग के निरोध को संवर कहा जाता; योग निरोध को नहीं। इससे भी सिद्ध होता है कि योग आस्रव में शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के योगों का समावेश है । " सूत्र में कहा है जैसे वस्त्र के मैल का उपचय होता है वैसे ही साधु के ईर्यावही कर्म का बंध होता है। जिस तरह वस्त्र में जो मैल लगता है वह प्रत्यक्ष बाहर से आकर लगता है उसी तरह जीव के जो ईर्यावही पुण्य कर्मों का उपचय होता है वह बाहर के कर्म-पुद्गलों का ही होता है। पुण्यरूप परिवर्तन नहीं । पापों के घिसते घिसते जो बाकी रहेंगे वे पाप कर्म ही रहेंगे; पाप पुण्य कर्म कैसे होंगे ? ईर्यावही कर्म का ग्रहण स्पष्टतः बाहर के पुद्गलों का ग्रहण है। वह उपचय रूप है। परिवर्तन रूप नहीं । यह कर्मोपचय 1 १. देखिए पृ० १५८ टि० ५० पृ० २०३ टि० ४: पृ० ३७६ : ५ २. टीकम डोसी की चर्चा ३. अन्य भी अनेक आगम प्रमाण स्वामीजी ने दिये हैं। विस्तार के भय से उन्हें यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy