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आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २)
४०-४१. अच्छे बुरे परिणाम, अच्छी-बुरी लेश्या, अच्छे-बुरे योग, अच्छे-बुरे अध्यवसाय और अच्छे-बुरे ध्यान ये सब जीव के परिणाम - भाव हैं। बुरे परिणाम पाप के द्वार हैं और भले परिणाम संवर और निर्जरा रूप हैं और उनसे सहज ही पुण्य का प्रवेश होता है" ।
४२.
४३. निर्जरा की निरवद्य करनी करते समय जीव के सर्व प्रदेश चल-चलायमान होते हैं। उस समय सहचर नामकर्म के उदयभाव से (आत्म- प्रदेशों में) पुण्य का प्रवेश होता है।
निर्जरा की निरवद्य करनी करते हुए कर्मों का क्षय होता है, उस समय जीव के प्रदेशों के चलायमान होने से आत्म-प्रदेशों के पुण्य लगते हैं ।
४४.
मन, वचन और काय ये तीनों योग प्रशस्त (शुभ) और अप्रशस्त (अशुभ) दो तरह के कहे गये हैं । अप्रशस्त (अशुभ) योग पाप-द्वार हैं और प्रशस्त योगों को निर्जरा की करनी में समाविष्ट किया है ।
४५. अप्रशस्त योगास्रव द्वार रुँधने का और प्रशस्त योग को उदीरने का कहा गया है। रुँधते और उदीरते हुए निर्जरा की क्रिया होती है जिससे पुण्य लगता है इसलिये शुभ योग को भी आस्रव में समाविष्ट किया गया है ।
४६. तीनों ही योग प्रशस्त और अप्रशस्त हैं और इनके बासठ भेद उववाई सूत्र में हैं। जीव के सावद्य या निरवद्य व्यापार योग हैं।
जिन भगवान ने असंयम के सत्रह भेद बतलाए हैं। असंयम अर्थात् अविरति । अविरति जीव की आशा-वांछा 1 का नाम है यह अच्छी तरह समझो " ।
४७.
असंयम के
१७ भेद
आस्रव हैं
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