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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) ४३६ ३३. मैथुन का सेवन करना मैथुन-आस्रव कहलाता है। अब्रह्मचर्य सेवन जीव-परिणाम है। अब्रह्मचर्य सेवन के समय जो कर्म उदय में रहता है वह मैथुन पाप-स्थानक है। मोहनीय कर्म अजीव है। ३४. सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त वस्तु विषयक ममत्वभाव को परिग्रह आस्रव समझना चाहिए। ममता-परिग्रह मोहकर्म के उदय से होता है और उदय में आया हुआ वह भोहकर्म परिग्रह पाप-स्थानक है। ३५. क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक इस तरह अलग-अलग अठारह पाप-स्थानक उदय में आते हैं। इन भिन्न-भिन्न पाप-स्थानकों के उदय होने से जीव जो भिन्न-भिन्न सावद्य कृत्य करता है वे सब जीव के लक्षण-परिणाम हैं। ३६. सावध कार्य जीव के व्यापार हैं और जिनके उदय से ये कृत्य होते हैं वे पाप कर्म हैं। इन दोनों को एक समझने वाले अज्ञानी भ्रम में भूले हुए हैं। ३७. आस्रव कर्म आने के द्वार हैं। ये जीव-परिणाम हैं। इन द्वारों से होकर जो आत्म-प्रदेशों में आते हैं वे आठ कर्म हैं, जो पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं। आस्रव जीवपरिणाम हैं, कर्म पुद्गल परिणाम ३८. अशुभ परिणाम, अशुभ लेश्या, अशुभ योग, अशुभ अध्यवसाय और अशुभ ध्यान ये पाप आने के द्वार (मार्ग) पुण्य पाप कर्म . के हेतु (गा० ३८-४६) ३६. शुभ परिणाम, शुभ लेश्या, शुभ निरवद्य व्यापार, शुभ अध्यवसाय और शुभ ध्यान ये पुण्य आने के मार्ग हैं।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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