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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २) ४३७ कर्म और कर्ता एक नहीं २६. कर्मों का कर्ता, जीव द्रव्य है और किए जाते हैं, वे कर्म हैं। जो कर्म और कर्ता को एक समझते हैं, वे अज्ञानी भ्रम में भूले हुए हैं। २७. अठारह पाप-स्थानक चतुःस्पर्शी अजीव हैं। उनके उदय में आने पर जीव भिन्न-भिन्न अठारह प्रकार के कर्तव्य करता है। वे अठारहों ही कर्तव्य आस्रव-द्वार हैं। आस्रव और १८ पाप-स्थानक (गा० २७-३६) २८. जो उदय में आते हैं वे तो मोहकर्म अर्थात् अठारह पाप-स्थानक हैं और उनके उदय में आने से जो अठारह कर्तव्य जीव करता है, वे जीव के व्यापार हैं। २६. पाप-स्थानकों के उदय को और उनके उदय में आने से होने वाले कर्तव्यों को जो भिन्न-भिन्न समझता है उसकी श्रद्धा-प्रतीति सम्यक् है। और जो इस उदय और कर्तव्य को एक समझते हैं उनकी श्रद्धा-प्रतीति विपरीत ३०. प्राणी-हिंसा को प्राणातिपात आस्रव कहते हैं। प्राणातिपात आस्रव के समय जो कर्म उदय में होता हैं उसे प्राणातिपात पाप-स्थानक कहते हैं यह अच्छी तरह समझ लो। ३१. झूठ बोलना मृषावाद आस्रव है और उस समय जो कर्म उदय में होता है वह मृषवाद पाप-स्थानक है। जो मिथ्या बोलता है वह जीव है तथा जो उदय में होता है वह कर्म है। इन दोनों को भिन्न-भिन्न समझो। ३२. चोरी करना अदत्तादान आस्रव है, चोरी करते समय जो कर्म उदय में रहता है वह अदत्तादान पाप-स्थानक है। अदत्तादान पाप-स्थानक के उदय से जीव का चोरी करने में प्रवृत्त होना जीव-परिणाम है।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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