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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ४३-४४ ४२५ लगता है। सावध कार्यों का सेवन जीव करता है। सावध कार्य योगास्रव हैं। इस तरह योगास्रव जीव-परिणाम सिद्ध होता है। ४३. दर्शनमोहनीय कर्म और मिथ्यात्व आस्रव (गा० ६६) मोहनीयकर्म का दूसरा भेद दर्शनमोहनीय है। इस कर्म के उदय से जीव सम्यक् श्रद्धा प्राप्त नहीं कर सकता और प्राप्त हुई सम्यक् श्रद्धा को खो देता है। मिथ्या श्रद्धा दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जीव-परिणाम है। मिथ्या श्रद्धा ही मिथ्यात्व आस्रव है अतः मिथ्यात्व आस्रव जीव-परिणाम है। एक बार गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- भगवन् ! जीव कर्म-बन्ध कैसे करता भगवान ने उत्तर दिया-“गौतम ! ज्ञानावरणीय के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय के तीव्र उदय से दर्शन-मोह का तीव्र उदय होता है। दर्शन-मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय से आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। इस तरह मिथ्यात्व दर्शन-मोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न जीव-परिणाम है, यह सिद्ध है। ४४. आस्रव रूपी नहीं अरूपी है (गा० ६७-७३) : आगम-प्रमाणों द्वारा स्वामीजी ने आस्रव पदार्थ को जीव सिद्ध किया है। अब वह अरूपी है यह सिद्ध कर रहे हैं। जिन प्रमाणों से आस्रव जीव सिद्ध होता है उन्हीं प्रमाणों से वह अरूपी सिद्ध होता है। जीव अरूपी है। आस्रव पदार्थ भाव-जीव है तो वह अवश्य अरूपी भी है। आस्रव अरूपी है इसकी सिद्धि में स्वामीजी निम्न प्रमाण देते हैं : (१) पांच आस्रव और अविरति भावलेश्या के लक्षण-परिणाम हैं, यह बताया जा चुका है (देखिए टि० ३० पृ० ४०६)। भावलेश्या किस तरह अरूपी है यह भी बताया जा चुका है (देखिए टि० २५ पृ० ४०६)। यदि लेश्या अरूपी है तो उसके लक्षण-पांच आस्रव और अविरति-रूपी नहीं हो सकते (गा०६८)। . (२) उत्त० २६.५२ में निम्न पाठ है : जोगसच्चेणं भन्ते जीवे किं जणयइ।। जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ।। १. प्रज्ञापना २३.१.२८६
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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